कभी ना सताऊंगा
कभी ना सताऊंगा
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कवि बनने की ललक चर्राया था
किन्तु उसी वक्त जिम्मेदारियों का बोझ भर्राया था,
मै इस पथ कुछ और दूर जा न सका
अपने मन की व्यथा किसी को सुना न सका
समय चलता रहा मैं रुका रहा
परिस्थितियों के सम्मुख
नत्मस्तक मैं झुका रहा।
मैं सोचता रहा
कवि सम्मेलन में मैं भी जाऊं
अपनी दो-चार कविताएं वहां सबको सुनाऊं
किन्तु जाता तो जाता कैसे
वहाँ किसीको मैं जानता नही
सख्सियत ऐसी की हमें कोई पहचानता नहीं।
आज पहचान वाले को ही
जगह और मान मिलता है,
योज्ञता हो या नादारद
फिर भी नाम और सम्मान मिलता है,
जितनी ऊंची दुकान उतने मीठे पकवाना
ऐसा ही है मैने सुन रखा है
इसी लिए तो इस नाकामयाबी के भवर से दूर
अपने लिए एक आशीयाना चून रखा है
आप सब से सुमधुर स्नेह के धागे से
एक स्वार्थ रहित निर्मल रिश्ता बुन रखा है।
वस इसिलिए रोज आपके सम्मुख आते है
अपने मन की बात भाव सहित नित्य ही
हम आप तक पहुचाते है।
बुरा न मानीयेगा लिखना मेरे लिए
सांस लेने जितना जरुरी है,
मित्र हूँ आपका अतः मुझे झेलना
आप की भी तो मजबूरी है।
झेलते जाईये पुण्य के भागीदार होंगे
कम से कम जोरु की गुलामी से अच्छा
एक मित्र के तो वफादार होंगे।
आपका यह एहसान हम कदापि न भुलायेंगे
यकीन जानीये गर मौका मिला कभी
किसी कवि सम्मेलन में
तो आपका मुझे झेलने पर
निस्संदेह दो-चार पंक्ति अवश्य गुनगुनायेंगे।
बश प्रार्थना कीजै मुझे यह मौका
केवल एक बार मिल जाये
मंच पे खड़ा होऊं और पाव न डगमगाये,
मेरे कविता के माध्यम से मुझे जानने वाले
कुछ लोग मुझे मिल जाये।
फिर कसम से आप सबको ना पकाऊंगा
एक जन्म क्या जन्म-जन्मान्तर तक
कभी किसी को ना सताऊंगा।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
9560335952
दिल्ली
26/4/2017