*कनबतियाँ’*
“कनबतियाँ”
सुन री सखियाँ सुन मेरी बहना परबतिया,
कैसे कहूँ कासे कहूँ अपने मन की कनबतियाँ।
तालाबंदी लगा हुआ अब मिलन ना होगा सखियों संग कनबतियाँ।
गांवों की गलियों में बचपन मेरा खोया हुआ था,
पेड़ों के नीचे अमराइयों में कहीं सोया हुआ था।
सुन री कोयल सुन री मैना जरा उन सखियों का पता बता दे,
जहां खेलते थे उन राहों की खोज करा कर राह दिखला दे।
ढूंढते ढूंढते थक गए नैना अब तो इन मुश्किल का हल बतला दे।
हाथ पांव अब ठिठक गए रुक गए हैं हवाओं में चलती अब कनबतियाँ।
कैसे कहूँ मोरे डर लागे अब नींद ना आये सारी रात जगाये कनबतियाँ।
कैसे कैसे रोग लगे हैं मोहे समझ ना आवे,
हंसती खेलती सखियाँ व्यंजन बनाती मन को लुभाये।
कनबतिया जब कान भरे हैं अब तरसन लागे हैं ये नैना।
एक दूजे संग बतियाते तुम बिन मिले ना चैना।
चूल्हा चौका छोड़कर सखियों संग कनबतियाँ करें है लगे न दिन रैन।
अब घर में बैठे इत उत डोलू चुप्पी साधे कोने में अपने मन से कनबतियाँ।
फोन लगाकर सखियों संग कान लगाए करते मीठी कनबतियाँ।
हंसती खिलखिलाती व्यंजन बनाती मन को लुभाती तेरी कनबतियाँ।
घर आँगन अब सूना लागे खो गया चेहरे का नूर,
एक दूजे से दूर ही रहती बोली बतियाती सखियों से हो गई अब दूर।
राम मिलाये जोड़ी अब तो सखियों संग मिलने को मजबूर।
सुन री सखियाँ तुम्हें पुकारू बीती बातों को याद दिलाऊँ,
जो तुम मुझसे रूठोगी तो प्रेम डोरी में बांध लूंगी होगी ना मुझसे तुम दूर।
संकट की कठिन समय में थोडा सा इंतजार कर लें ।
आज नहीं तो कल फिर मिलेंगे सारी रतिया करेंगे कनबतियाँ।
शशिकला व्यास