औरत
औरत होकर भी
वो, औरत ही होती है
जो औरतों का दुख-दर्द
सब से कम समझती है ।
अपने पे जो बीती हो
वो दूसरी औरत को
सूद समेत वापस करती है
रहती है खुद अज़ाब में
अपनी जात और जाई को भी रखती है
वो, औरत ही है जो औरतों का दुख
बहुत देर से समझती है,
समझ कर भी लेकिन वो
चुप्पी का ही साथ देती है
न खुद प्रतिकार करती है
न किसी और को करने देती है
जन्म से ही, खुद को वो
बेड़ियों के लायक ही समझती है
न खुद खुलती है न किसी और को खुलने देती है
बड़ा अजीब है ये भी,
खुद को सीता, लक्ष्मी और अहिल्या समझती है
राम, विष्णु गौतम को आदर्श परुष समझती है !
…सिद्धार्थ