ऐ ट्यूबलाइट
ऐ ट्यूबलाइट,
जिस तरह शाम को कमरे पर पहुंचते ही स्वतः उंगलियां स्विच पर चली जाती हैं और तू ऐसे फट्ट से मुस्कुरा देती है जैसे सिर्फ मेरे ही आने का ही इंतजार कर रही हो। और सच में तेरे ही मुस्कान की वज़ह से रौशन होती है मेरी हर शाम, झिलमिल करती है हर रात और कभी कभी तो ऐसा भी होता है तेरे ही आगोश में सराबोर होकर कहीं दूर किसी और ही देश की नींद भरी चादर ओढ़ लेते हैं।
मैं भी कितना मतलबी हो जाता हूं, कभी कभी एहसास ही नहीं रहता कि बिना शिकायत सांझ से रात तक जो इश्क़ की श्वेत रोशनी बिखेरती रहती है तुझे भी तो कुछ पल अपने लिए चाहिए, कुछ पल सजने संवरने के लिए, कुछ वक़्त खुद के लिए, कुछ समय अंधेरे से गुफ्तगू करने के लिए, और एक हम हैं जो दिन में भी तुझे मजबूर कर के किवाडियों में कैद कर के अपने सफर पर निकल जाते हैं, और छोड़ जाते हैं तुझे अकेला दिन के राक्षसों के बीच। और तूं भी कितनी जिद्दी है कि कभी शिकायत भी नहीं करती और कभी अचानक बंद होकर गुस्से का इजहार भी नहीं करती।
बिन स्वारथ निश्चल जले, करे रात दिन एक।
अंधियारा ना शूल बने, करे प्रेम में यत्न अनेक।
मुझे तो यही सच्चे प्रेम का पहला उदाहरण नजर आता है, चाहे वो मोमबत्ती हो, ढिबरी हो, लालटेन हो या कोई नन्हा दीप, जबतक ये जलते नहीं तबतक हमें सुकून वाली राह नहीं मिलती, बाकी और तो सब समाज में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए प्रेम का स्वांग करते हैं।
© शिवांश मिश्रा