ऐसे बिस्तर पे मुझे रोज़ सुलाया न करो
ग़ज़ल
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ज़ल्व-ए-हुस्न सरे-आम दिखाया न करो
सारे ही शह्र पे बिजली यूँ गिराया न करो
?
देखते ही मैं तुम्हें जानो-जिग़र दे बैठा
तीर नज़रों के सनम दिल पे चलाया न करो
?
हम हक़ीक़त में तड़पते हैं वस्ल को दिलबर
ख़ाब में आके मुझे रोज़ सताया न करो
?
देख कर रोज़ अदाएँ तो दिखाती मुझको
मैं अगर सामने आऊँ तो लजाया न करो
?
फासलों से न कहीं जान निकल जाए मैरी
दूर इक पल भी निगाहों से यूँ जाया न करो
?
सोने देगी न मुझे कब्र में बाँहें तेरी
ऐसे बिस्तर पे मुझे रोज़ सुलाया न करो
?
मर के भी चैन मिलेगा न मुझे ऐ “प्रीतम”
हसरतें जीने की अब और बढ़ाया न करो
?
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
15/09/2017
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