खंजन
एक सुबह
एक सुबह देखी मैंने खंजन
तरुवर साख पे वो बैठी थी
नैन बसी कोई अभिलाषा
वो हृदय आस लिए बैठी थी|
आते जाते हर पंक्षी को वो
विरल भांति से तकती थी
जैसे कोई लाया हो सन्देशा
फिर निरा उदास वो होती थी|
साहस कर एक दिन उड़ बैठी
ठिठकी पहले थोड़ी सी कांपी
गगन ऊंचाई जब उसने नापी
प्रसन्न हृदय हिलोर फिर ली थी
कर पुरुषार्थ क्यों तू भरमाया
मन आनन्द गगन का भाया
उठ मनुज क्यों तू अलसाया सुखद
वो ईश मिलन की प्रसन्नता वो थी
लक्ष्य तेरा है तुझे पुकारे
खंजन भांति तू किसे निहारे
सोच जरा क्यों जन्म मिला है
भरी खिन्नता तुझमें क्यों थी
मानव श्रेष्ठ का तन ये दिया है
जिसने प्राण वरदान दिया है
उद्देश्य क्या तेरे जीवन का
आज हृदय यही आस जगी थी |
एक मात्र सत्य सृष्टि का
खिला तुझमे अंश उसी का
सत्य प्रेम का विस्तार करो
उठ उत्कृष्ट कृति खड़ी थी |
उस ज्ञान मार्ग का ध्यान धरो
सर्वोच्च शक्ति का वरदान बनो
करो जाग्रत स्वयं में अंश उसकी
आज उल्लास मिली घड़ी थी