Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
1 Jul 2021 · 13 min read

एक श्वान की व्यथा

हास्य व्यंग्य से भरपूर बहुचर्चित कथा
एक श्वान की व्यथा
कथाकार : महावीर उत्तरांचली

मोती यानी “मैं” और जैकी नरकीय ‘पिताजी’! (क्योंकि हमारे कर्म ऐसे हैं कि स्वर्ग मिलने से रहा?) दोनों कुछ बरस पहले दुम हिलाते हुए गांव से दिल्ली आ गए थे। कारण ये था कि गांव में ज़मीदार की कुतिया बसन्ती मेरे यौवन पर मर मिटी थी और अक्सर हम दोनों खेत की मुंडेर पर या ज़मींदार की हवेली के पीछे चोरी-छिपे मिला करते थे और अपनी वफ़ा के दोगाने गुनगुनाया करते थे। दुर्भाग्यवश, जैसा कि हिंदी फ़िल्मों में भी अक्सर नायक-नायिका के साथ होता है। ठीक हमारे साथ भी वैसा ही घटित हुआ–अमीरी-ग़रीबी की दीवार। वर्गभेद। समाजवादी दृष्टिकोण से कहें तो बुर्ज़ुआ, सर्वहारा की प्रॉब्लम। मैं ठहरा ग़रीब किसान बंसी का निर्धन कुत्ता और बसन्ती ज़मींदार की हवेली की रौनक। अतः खलनायक बनकर हमारे बीच आ खड़ा हुआ ज़मींदार का इकलौता छोरा ‘गबरू’। अक्सर बसन्ती के साथ मुझे देखते ही न जाने क्यों उसे पागलपन के दौरे पड़ने लगते थे! कभी पत्थर, तो कभी लाठी उठाके मार देता था कमबख़्त। एक दिन साहस जुटाकर मैंने ‘गबरू’ को काट ही डाला। पूरे चौदह इंजेक्शन लगे होंगे हरामख़ोर को। बस इतनी छोटी-सी बात पर हरामी जमींदार ने फ़तवा ज़ारी कर दिया कि, ‘मोती को देखते ही गोली मार दी जाये।’

अतः मेरे पिता ने गांव छोड़ने में ही भलाई समझी और मज़बूरीवश हम दोनों प्राणी दुम हिलाते हुए शहर आ गए। बहुत रोई थी उस रोज़ बसन्ती। कह रही थी, “मोती, हमें भी ले चलो शहर, वरना हम भौंक-भौंककर अभी जान दे देंगे।” लेकिन तब पिताश्री ने यह कहकर बसन्ती को रोक दिया कि, “बिटिया, काहे फालतू भौंक रही हो! हम तो मज़बूरीवश बेघर होकर परदेश जी रहे हैं। फिलहाल रहने-खाने की कोई व्यवस्था नहीं है, होते ही तुम्हें बुलवा लेंगे।”

सचमुच पिताश्री ने उस वक़्त सत्यवचन कहे थे। पहले-पहल तो बड़ा विचित्र-सा लगा ये दिल्ली शहर। यहाँ के कुत्तों और इंसानों का व्यवहार एक जैसा ही था! जिसे देखो काट खाने आये! कोई सीधे मुंह बात करने को राज़ी ही नहीं। तहज़ीब नाम की चीज़ नहीं! न कोई राम-राम! न कोई दुआ-सलाम! सीधे चढ़ जाओ राशन-पानी लेकर! मैं भी मानता हूँ कि गांव-देहात में भी ई सब होवत है मगर परदेसियन को अतिथि समझकर इज़्ज़त भी देत हैं गावन के सब आदमी और कुकुर। मन किया कि ट्रेन पकड़कर वापिस गांव चले जाए, मगर अखियन के सामने ज़मींदार का क्रूर चेहरा घूम गया और अपना इरादा रदद् करना पड़ा।

महानगरों में आवास की समस्या सचमुच कितनी विकट है, ये बात मुझे दो दिन में ही समझ आ गई थी भटकते-भटकते! माई गॉड। जहाँ जानवर भी रहना पसन्द न करें, वहां भी मानव नामक जंतू बड़ी सहजता से विचार रहा है। घासफूस की टूटी-फूटी झोंपड़ी में घासलेट खाकर, कीड़े-मकोड़ों से भी गया-गुज़रा हो चुका है आदमी! नदी-नाले तक क़ब्ज़ा रखे हैं! हम श्वानों के रहने लायक जगह भी नहीं छोड़ी ससुरों ने! पहले-पहल तो बड़ा क्रोध आता था, मगर अब दया भी आने लगी है इस दो टांगों वाले प्राणी की दुर्दशा पर।

इस बीच कोठी-कार वाले कुत्ते-बिल्लयों को भी देखने का असीम सौभाग्य (शायद पूर्व जन्मों के पुण्य प्रतापों से) प्राप्त हुआ, मुझ जैसे तुच्छ जीव को! क्या ठाट-बाट हैं, इन जानवरों के? खाट पर ही टट्टी-पेशाब करते हैं! मालिक की गोद में बैठते हैं और मेमसाब के गाल चूमते हैं! कई बार तो मुझे खुद पर क्रोध आया कि भगवान तूने मुझे किसी अमीर आदमी का कुत्ता बनाकर क्यों नहीं भेजा? क्या मज़े हैं इनके पिल्लों के, मनुष्यों के बच्चे चाय तक को तरसते हैं और ये दूध-मलाई उड़ाते हैं! निर्धनों के भाग में रुख़ी-सूखी भी नहीं और ये मटन-चिकन खाते हैं। हाय रे इंसानियत! इंसान बगैर दवा-दारू के मर रहा है और कुत्ते-बिल्लियों के इलाज़ में हज़ारों-लाखों ख़र्च किये जाते हैं? विदेशों से महंगे-महंगे डॉक्टर तक बुलाये जाते हैं? वाह रे प्रभु! कितनी दया-ममता दी है तूने, धनवानों के हृदय में! कौन कमबख़्त कहता है कि अमीर लोग बेरहम-बेदर्द होते हैं? गांव में तो ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि अगले जन्म में मुझे मानव योनी प्रदान करना (जो कि सुनते हैं चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद भी मुश्किल से प्राप्त होती है) लेकिन शहरी मनुष्य की दुर्दशा देखकर ये भ्रम भी जाता रहा। अब तो दिल्ली की गलियों में भटकते हुए ये दुआ करता हूँ कि प्रभु! चाहे जो कुछ भी हो तू जन्म-जन्मान्तर तक मुझे कोठी-कार वाले का कुत्ता ही बनाना! ताकि मज़े का खाना-पीना तो मिले ही, साथ ही साथ गोरी-गोरी चमड़ी वाली मेमों की गोदी में बैठने का असीम सुख भी मुझे प्राप्त होती रहे। ख़ैर, ये तो बाद की बात है, मैं ज़िक्र कर रहा था, आवास की समस्या का। शुरू-शुरू में तो कुछ दिन हमने किसी तरह इंसानों के साथ ही फुटपाथ पर काटे। आख़िरकार हमें एक सरकारी स्कूल के पास नाली में रहने लायक जगह मिल ही गई। अब हम दोनों पिता-पुत्र गांव की ताज़ी आबो-हवा की कल्पना करके नाले की बदबूदार हवा बर्दाश्त करते और स्कूल के हरे-भरे मैदान को देखकर हमें गांव के खेत-खलिहान याद आते! हम दोनों ठंडी आह भरकर रह जाते!

खुशियों के मामले में मैं शुरू से ही बदनसीब रहा हूँ। एक चीज़ मिलती है तो दूसरी छिन जाती है। जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए थे आवास की समस्या का समाधान हुए कि एक दिन म्युनिसिपल कारपरेशन वालों की कुत्ता पकड़ने वाली गाड़ी आई और भोजन की तलाश में निकले पिताश्री को उठाकर ले गई। वो दिन है पिताजी आज तक नहीं लौटे हैं। मैंने उन्हें तब से स्वर्गीय (मेरा मतलब नरकीय) मान लिया है जब से पड़ोस की एक बूढ़ी खुजली वाली मरियल-सी कुतिया ने मुझे बताया कि उसके शौहर को भी भरी जवानी में ससुराल वाले (म्युनिसिपल वाले) उठाकर ले गए थे और ‘वे’ आज तक नहीं लौटे।

“ताई, ये म्युनिसिपल वाले हम जैसे भोले-भाले कुत्तों को पकड़ के करते क्या हैं?” मैंने कान खुजाते हुए पूछा।

“प्लीज़, मेरे सामने खुजली मत करो, मुझे भी खुजली होने लगती है।” ताई ने भी अपना कान खुजाते हुए कहा।

“ठीक है ताई, आइन्दा ख़्याल रखूंगा, लेकिन ये म्युनिसिपल वाले करते क्या हैं?” मैंने दुबारा भौंकते हुए पूछा।

“कोई कहता है, गोली मार देते हैं! कोई कहता है कि इंजेक्शन लगा के सुला देते हैं! तो कोई कहता है खाने में ज़हर दे देते हैं! जितने मुंह उतनी बातें।” ताई आवेश में अब कभी अपना कान, तो कभी पैर खुजाने लगी और मुझे अजीब-सी गुदगुदी होने लगी। सचमुच! मैंने पहली बार अनुभव किया कि, ‘खुजाने में जितना आनंद है, उतना शायद दुनिया की किसी वस्तु में नहीं।’

“कितने निर्दयी होते हैं इंसान? कुत्तों से भी गए गुज़रे!” मेरे हृदय से आह निकली।

“ये सिला दिया है हमारी वफ़ादारी का, इंसानों ने।” खुजलाते-खुजलाते यकायक ताई क्रोधित होकर भौंकी, “ख़ुद आवारा कुत्तों की तरह घूमते हैं आदमी, और हम रोज़ी-रोटी की तलाश में भी घूमें, तो धर-पकड़ लिए जाते हैं। हमारे जज़्बात सिर्फ़ मेनका गाँधी जी ने ही समझे हैं। जबसे उन्होंने हम जैसे बेज़ुबान जानवरों की हिमायत की है, देशभर के तमाम मदारी, शिकारी, सपेरे भूखों मारने लगे हैं।” कहकर ताई इत्मीनान से खुजली करने लगी।

“अच्छा मैं भी जाऊँगा मेनका जी से मिलने।” मैंने ख़ुशी ज़ाहिर की।

“तेरी कौन सुनेगा बेटा? इंसान-इंसान की नहीं सुनता, अगर कारपरेशन वालों की नज़र पड़ गई तो बेकार में तुम भी धर लिए जाओगे।”

“सो तो ठीक है ताई, मगर डर-डरके कब तक जियूँ?”

“सारे दिन एक से नहीं रहते बेटा, हौंसला रख। मुझे देख मैं ग़रीब अबला नारी पांच-पांच जवान बेटियों का पेट भर रही हूँ।” ताई ने खुजाते हुए हिम्मत बढाई, “घबरा मत, बेख़ौफ़-बेफ़िक़्र जी। तू आज से अपना देहाती चोला उतारके पूरा शहरी बाबू बन जा!”

“शहरी बाबू?” मैंने हैरानी से पूछा, “वो कैसे?”

“देहाती चोला उतारने से अभिप्रायः यह है कि, सीधेपन और भोलेपन को त्याग दो।” ताई शुद्ध हिंदी में भौंकी, “और शहरी बाबू की शाब्दिक परिभाषा मात्र यह है कि, मक्कारी, खुदगर्जी और अड़ियलपने को अपना लो। कोई मरता हो! लाख गिड़गिड़ाता हो! उसकी एक न सुनो। उसकी तरफ़ मत देखो।”

“इससे क्या होगा?” मैंने पुनः हैरानी व्यक्त की।

“मोती बेटा, इससे ये फ़ायदा होगा कि, ये शहर तुम्हारा हो जायेगा और तुम इस शहर के दामाद।” ताई ने समझाते हुए कहा।

उसी दिन से मैंने ताई की बात गांठ क्या बाँधी कि मुझ पर दिल्ली का रंग बख़ूबी चढ़ने लगा। अब मैं भी यहाँ के शहरी कुत्तों की तरह चलती गाड़ियों के पीछे दौड़ना अपना परम कर्तव्य और धर्म समझने लगा हूँ। ख़ासकर दुपहिया वाहनों के पीछे भागने में बड़ा मज़ा आता है क्योंकि दुपहिया चालकों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती है और उनकी फूंक सरक जाती है। वैसे दुपहिया चालकों से मुझे ख़ासी नफ़रत भी है क्योंकि जिस रोज़ हम पिता-पुत्र दुम हिलाते हुए गांव से दिल्ली आये थे। ये उसी दिन की घटना है। हम बस-अड्डे से बाहर निकले ही थे कि एक कम्बख़्त ने हॉर्न बजाकर हमको डरा दिया। हॉर्न की आवाज़ बिलकुल किसी शक्तिशाली बुलडॉग की आवाज़ से हू-ब-हू मिलती-जुलती थी। बस फिर होना क्या था? हम पिता-पुत्र आगे-आगे दुम दबाये भागे जा रहे थे और वो कम्बख़्त स्कूटर वाला पीछे-पीछे हॉर्न बजाता हुआ। हमें डराता जा रहा था। करीब डेढ़-दो किलोमीटर भागने के बाद हमने पीछे मुड़कर देखा तो असलियत का पता चला और पिताश्री ने भौंक-भौंककर माँ-बहन की मोटी-मोटी ठेठ-देहाती गालियाँ दुपहिया चालक को दीं। वहां उपस्थित शहरी कुत्ते मुंहफाडे हमारे इस गंवारपने पर हंसने लगे। तब से किसी भी दुपहिया वाहन को देखकर मुझे वह घटना स्मरण हो आती है और तब मैं पागलों-सा उसके पीछे दौड़ने लगता हूँ। एक दिन तो एक साइकिल सवार इतनी बुरी तरह डर गया कि एक्सीडेंट होते-होते बचा। इसके अलावा अब मैं भी शहरी कुत्तों की तरह झपटा मारकर रोटी-बोटी छीनने का अभ्यस्त हो चला हूँ। राह चलते किसी भी व्यक्ति को काट खाने पर जो आनंद मिलने लगा है उसके तो कहने ही क्या? अकारण किसी को भी देख भौंकने लगता हूँ इसलिए लोग-बाग अब मुझे डण्डा-पत्थर मारने से डरने लगे हैं। मुहल्ले की सारी विवाहित-अविवाहित कुत्तियां मेरी इस उन्नति पर फ़िदा हैं। पिछले दिनों पब्लिक स्कूल के निकट रहने वाले कुछ कुत्तों की मेहरबानी से मैंने अंग्रेजी भाषा पर भी दक्षता हांसिल कर ली है। अब मैं भी अंग्रेजी में भौंक-भौंककर देहाती और हिंदी भाषी कुत्तों पर रौब झाड़ लेता हूँ। नए कुत्ते तो मुझे फॉरेन रिटर्न समझते हैं। पहले जो कुत्ते गांवड़ी-गंवार कहकर मेरा उपहास करते थे आजकल मैंने उन्हें अंग्रेजी की ट्यूशन पढ़ा रहा हूँ। सचमुच महानगरों में तहज़ीब का पर्याय ही बदल गया है। मात्र अंग्रेजी में भौंकने के कारण मुझ जैसे गंवार देहाती कुत्ते को भी पढ़ा-लिखा महाविद्वान मान लिया गया है। इसी नाते पिछले दिनों कुत्तों की सत्ताधारी राजनैतिक पार्टी ने मुझे ‘कुत्ता-रत्न’ पुरस्कार देने की घोषणा की थी। जिसे ताई के कहने पर मैंने लेने से इनकार कर दिया था। ताई ने साफ़-साफ़ बताया, “पुरस्कार लेने के बाद राजनैतिक पार्टी वाले तुम्हें भी राजनीति में घसीट लेंगे! फिर तुम कुत्ते नहीं रहोगे, इंसान बन जाओगे!”

“इंसान, क्या मतलब?” मैंने सवाल दाग़ा।

“वैसे देखने में तुम रहोगे कुत्ते ही मगर राजनीति में जाने के बाद तुम्हारी हरकतें इंसानों जैसी हो जाएँगी! फिर तुम भी दूसरों के वास्ते छल-कपट, घृणा का माहौल तैयार करने लगोगे! क़दम-क़दम पर अपने शत्रुओं के विरुद्ध षड्यंत्र रचोगे! कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाती के नाम पर वोट मांगने लगोगे! दंगे-फसाद भी करवाओगे! नहीं मोती बेटा, तुम इन पचड़ों में मत पड़ो। कुत्तों की बिरादरी में कुत्ता बनकर ही जियो। कभी इंसान मत बनना। ठुकरा दो ये पुरस्कार।”

“ताई तुम्हें ये सब कैसे मालूम?”

“बेटा मैं कोई फुटपाथी कुतिया नहीं हूँ। मेरा बचपन एक पूर्व मंत्री जी के घर गुज़रा था। बस वहीँ से ये सब मालूम हुआ।”

“पर ताई, तुम फुटपाथ पर कैसे आई?”

“बेटा, मीठा खाने के कारण मुझे खुजली हो गई थी और फुटपाथ पे आना पड़ा।”

“बड़ी दर्दनाक़ कहानी है तुम्हारी ताई!” मैंने पूंछ हिलाकर अपनी श्वानुभूति दर्शायी।

“ख़ैर छोडो ये पुरानी बातें, बेटा। ये बताओ कभी संसद भवन गए हो?”

“नहीं, ये क्या बला है?”

“वाह मोती! कहते हो कि दिल्ली में रह रहा हूँ। हैरानी है कि तुमने संसद भवन नहीं देखा! तो फिर दिल्ली को क्या देखा?”

“साफ़-साफ़ कहो ताई, यूँ पहेली न बुझाओ!”

“अरे बेटा, संसद भवन में ही तो देशभर से चुने हुए सारे अक्लमंद और महान लोग इकट्ठा होते हैं और बात-बात पर लड़ते हैं।” ताई ने समझाया, “कभी-कभी तो हाथापाई तक की नौबत भी आ जाती है। जिन पूर्व मंत्रीजी के यहाँ मैं पली-बड़ी थी। एक बार तो भवन के अंदर उनका सिर फूट गया था।”

“किस बात पर?”

“वो प्याज के बढ़े हुए दामों पर सत्ताधारियों का विरोध कर रहे थे कि सत्ताधारियों ने प्याज की बौछार कर दी और बेचारे पूर्व मंत्री जी का सिर फूट गया।”

“बाप रे, इतनी ख़राब चीज़ होती है राजनीति!”

“हाँ बेटा, इसलिए कह रही हूँ छोड़ दो ये इनाम-फिनाम का चक्कर। मार दो लात पुरस्कार को।”

ताई के कहने पर मैंने पुरस्कार को ठोकर क्या मारी कि मीडिया और अख़बार वालों ने मुझे जननायक बना दिया। मेरी जीवन गाथा को खूब नामक-मिर्च लगाकर प्रस्तुत किया गया। टेलीविजन पर ऐंकर द्वारा चींख-चींख कर बताया गया कि कैसे मैं गंवार-देहाती से आजका पढ़ा-लिखा सुसंस्कृत शहरी बन गया। वैसे आजकल इंसानों में भी चर्चित होने के लिए ‘पुरस्कार को ठोकर मारने वाला ट्रैंड’ स्थापित हो चुका है। हर दूसरे-चौथे दिन कोई-न-कोई कलाकार या साहित्यकार पुरस्कार को ठोकर मारकर चर्चित होता ही रहता है। श्वानों में ये महान काम करने वाला शायद मैं पहला शख़्स हूँ। पिछले दिनों कुत्ता दैनिक न्यूज़ वालों ने भी मेरी बढ़ती लोकप्रियता देखकर मुझे संपादक की पोस्ट ऑफ़र की थी। जिसे ताई के कहने पर मैंने ये कहकर ठुकरा दिया था कि “ये तो फालतू आदमियों का काम है। इसके लिए किसी फ्लॉप लेखक को पकड़ो, जिसकी कवितायेँ, कहानियाँ कोई न पढ़ता हो।”

ताई मेरी इस वर्तमान प्रगति को देखकर इतनी प्रसन्नचित हुई कि हंसी-ख़ुशी उसने अपनी बड़ी बेटी काली का हाथ मेरे हाथों में दे दिया। हाँ, एक बात और, जिसका ज़िक्र करना मैं भूल गया था। अब मैं भूखा नहीं मरता। रोज़ दावतें उड़ाई जाती हैं। गांव में हम बग़ैर बुलाये कहीं नहीं जाते थे, लेकिन दिल्ली शहर में अन्य कुत्तों और आदमियों की देखादेखी बिन बुलाये मेहमान की तरह कहीं भी, किसी भी शादी-पार्टी, तेरहवीं आदि में पहुँच जाना, हम भी अपना पैदाइशी हक़ समझने लगे हैं। फिर सच ही तो है। जिसने की शर्म! उसके फूटे कर्म! मुफ़्तख़ोरी में ताई और उसकी पांचों बेटियां भी मेरा भरपूर साथ देती हैं। खुजली के बावज़ूद ताई को हलवे से कोई परहेज़ नहीं है। अब तो मेरा मन शाही पनीर, मटर, छोले, हलवा-पूरी खा-खाकर ऊब-सा गया है। अब तो केवल मदिरा सेवन में ही मुझ नाचीज़ को महा आनन्द मिलता है। कैसे? (आप सोच रहे होंगे, एक कुत्ता और वो भी शराबी! भला कैसे?) जनाब, तो जवाब हाज़िर है, आजकल शादी-पार्टियों में सड़क के किनारे या तम्बू के पीछे जो शराबी-कबाबी गिरे रहते हैं? उनका मुख चाट-चाटकर ही खाकसार को नशा हो जाता है। तब मदिरा की महक मेरे दिलो-दिमाग़ पर एक अजीब-सा उन्माद पैदा करती है और तब मैं ख़ुद को किसी हीरो या सुपर-स्टार से कम नहीं समझता हूँ। सड़ी-गली कुतिया भी मुझे मिस वर्ल्ड या मिस यूनिवर्स दिखाई देने लगती है। शराब के इस महा आनन्द को प्राप्त करने के लिए अर्थात दारूबाजों का मुख चाटने के लिए, अक्सर मुहल्ले के अन्य कुत्तों से मेरी नोक-झोंक होती रहती है। कभी-कभी हाथापाई की नौबत भी आ जाती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अंततः विजयश्री मुझे ही प्राप्त होती है। आख़िर शराब की लत को ज़िंदा रखने के लिए इतना जिगर तो चाहिए ही!

इसी तरह शराबियों का मुंह चाटते हुए मज़े से दिन गुज़र रहे थे कि एक दुर्घटना हो गई। एक रोज़ भोजन की तलाश में ताई अकेली क्या निकली कि उसका काल आ पहुंचा। सड़क पर कर रही थी बेचारी कि बीच सड़क में ही उसे बड़े ज़ोरों की खुजली उठी और ताई सड़क पर ही अपनी पीठ रगड़ने लगी। तभी कंपप्टिशन में चल रही एक अंडर डी.टी.सी. बस ने बेचारी को कुचलकर उसकी खुजली हमेशा-हमेशा के लिए शांत कर दी। इंसान तो अक्सर सड़क दुर्घटनाओं के शिकार होते रहते हैं मगर किसी जानवर के, और ख़ासकर किसी भी कुत्ते के मरने पर मुझे गहरा आघात पहुँचता है, क्योंकि ये कहावत बन गई है कि बेचारा कुत्ते की मौत मरा है। हालाँकि श्वानों के मध्य इसे ‘आदमी की मौत’ की संज्ञा दी जाती है। ख़ैर छोड़ो, इस बात को भगवान ताई की आत्मा को खुजली अर्थात शांति दे। रिश्तेदारी होने के नाते उस बूढ़ी की सभी बेटियों की ज़िम्मेदारी मुझ ग़रीब पर आन पड़ी। उसी का परिणाम है कि आज मुझ नाचीज़ की पांच बीवियाँ हैं। पहले पूरे इलाक़े में मुसलमानों के कुत्तों की धाक थी क्योंकि उन सबकी चार-चार बीवियाँ थीं लेकिन अब मेरा रौब चलता है। सारे कुत्ते रिस्पेक्ट देते हैं। (मेरे ख़्याल से सभी को चार-पांच शादियाँ कर लेनी चाहिए।) इससे फ़ायदा ये है कि कोई भी सिर पर नहीं चढ़ती और दुम दबाये सभी सेवा में हाज़िर रहती हैं।

पांचों घरवालियों के साथ पिछले कई वर्षों से ज़िन्दगी बड़े मज़े से कट रही है। बस कभी-कभार गांव की और बसन्ती की याद आ जाती है तो हृदय ग़मगीन-सा हो जाता है। इस बीच मैंने सुना कि गांव में बसन्ती भी दर्जनभर बच्चों की माँ बन चुकी है। यह जानकर मुझे संतोष हुआ कि बसन्ती ने भी अपना घर बसा लिया है। मेरे ग़म में वह लैला नहीं बनी।

बसन्ती के दर्ज़नभर बच्चों की ख़बर सुनकर मैंने अब एक नया संकल्प लिया है कि श्वानों की आबादी भी इंसानों के समानांतर बढ़नी चाहिए। तभी धरा पर कुत्तों की हुक़ूमत क़ायम होगी और धरा पर से मनुष्य का एकमात्र दबदबा ख़त्म होगा। ये सब तभी सम्भव है जब हर श्वान की चार-पांच शादियाँ हों। पूरी दुनिया में इंसान छह अरब हैं, तो कुत्ते लगभग बारह अरब होने चाहिए। हर एकाध मिनट में एक मानव शिशु जन्म लेता है तो इतने ही समय में श्वानों के चार-पांच शिशु होने चाहियें। अब मैं धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के रिकॉर्ड से थोड़ा-सा ही दूर हूँ। उम्मीद है, इन सर्दियों तक ये रिकॉर्ड मेरे नाम पर दर्ज़ होगा।

मगर जब मैंने अपनी ये हृदयगत मंशा पांचों घरवालियों को बताई तो जानते हो क्या हुआ? कम्बख़्त पांचों की पांचों मुझे सीवर के गटर में बंद करके दिनभर को न जाने कहाँ ग़ायब हो गईं? शाम को जब उन्होंने मुझे गटर से निकाला तो बताया गया कि पांचों ने नसबन्दी कैम्प में जाकर नसबन्दी करवा ली है! धत तेरे की!!

5 Likes · 20 Comments · 664 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
View all
You may also like:
हे अयोध्या नाथ
हे अयोध्या नाथ
सुरेश कुमार चतुर्वेदी
* मायने हैं *
* मायने हैं *
surenderpal vaidya
गणेश जी पर केंद्रित विशेष दोहे
गणेश जी पर केंद्रित विशेष दोहे
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
नीला सफेद रंग सच और रहस्य का सहयोग हैं
नीला सफेद रंग सच और रहस्य का सहयोग हैं
Neeraj Agarwal
हार हमने नहीं मानी है
हार हमने नहीं मानी है
संजय कुमार संजू
भुलाना ग़लतियाँ सबकी सबक पर याद रख लेना
भुलाना ग़लतियाँ सबकी सबक पर याद रख लेना
आर.एस. 'प्रीतम'
क्या दिखेगा,
क्या दिखेगा,
pravin sharma
"एक सवाल"
Dr. Kishan tandon kranti
#ekabodhbalak
#ekabodhbalak
DR ARUN KUMAR SHASTRI
तबकी  बात  और है,
तबकी बात और है,
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
कसौटी
कसौटी
Astuti Kumari
कन्यादान
कन्यादान
Mukesh Kumar Sonkar
🌺प्रेम कौतुक-194🌺
🌺प्रेम कौतुक-194🌺
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
*कुछ गुणा है कुछ घटाना, और थोड़ा जोड़ है (हिंदी गजल/ग
*कुछ गुणा है कुछ घटाना, और थोड़ा जोड़ है (हिंदी गजल/ग
Ravi Prakash
कौन सोचता बोलो तुम ही...
कौन सोचता बोलो तुम ही...
डॉ.सीमा अग्रवाल
जीवन अप्रत्याशित
जीवन अप्रत्याशित
पूर्वार्थ
आख़िरी मुलाकात !
आख़िरी मुलाकात !
The_dk_poetry
-- आधे की हकदार पत्नी --
-- आधे की हकदार पत्नी --
गायक - लेखक अजीत कुमार तलवार
कोशिश
कोशिश
Dr fauzia Naseem shad
बता तुम ही सांवरिया मेरे,
बता तुम ही सांवरिया मेरे,
Radha jha
#अभिनंदन-
#अभिनंदन-
*Author प्रणय प्रभात*
रिश्ते
रिश्ते
विजय कुमार अग्रवाल
मन को जो भी जीत सकेंगे
मन को जो भी जीत सकेंगे
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
लाखों रावण पहुंच गए हैं,
लाखों रावण पहुंच गए हैं,
Pramila sultan
दिल की बात बताऊँ कैसे
दिल की बात बताऊँ कैसे
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
दिवाली
दिवाली
Ashok deep
महसूस तो होती हैं
महसूस तो होती हैं
शेखर सिंह
"एक दीप जलाना चाहूँ"
Ekta chitrangini
कान खोलकर सुन लो
कान खोलकर सुन लो
Shekhar Chandra Mitra
है कौन वो राजकुमार!
है कौन वो राजकुमार!
Shilpi Singh
Loading...