एक शिकायत खुद से …. (ग़ज़ल)
ज़माने को शिकायत है हमसे ,
और हमें शिकायत है खुद ही से .
क्या ज़रूरत थी इस जहां में हमारी?
जिंदगी ने भी सवाल खड़े किये हमसे .
गिरगिट सी अदा हम न सीख सके ,
कोई रिश्ता न बना सके झूठ औ फरेब से.
हम थे नादाँ ,वक़्त का इशारा न समझ सके,
बदल रहा था ज़माना और हम रहे बेगाने से.
चेहरों को पढने ,दिलों को टटोलने की कोशिश ,
क्या फायदा हुआ ? कहलाये हम ही दीवाने से.
पत्थरों सी दुनियां में शीशे सा दिल लिए चलना,
टूटना तो टूट कर ही रहा ,कब तक बचाते वारों से.
खता तो हुई है हमीं से ,तो शिकायत किस्से कीजिये?
हमारे गुनाहों को बक्श दो,अर्ज़ करते है हम खुदा से.