‘एक ठान मुक़म्मली’
कोशिशें बेहिसाब कीं मुक़म्मल करने की,
ज़िन्दगी तेरा हिसाब ज़रा उलझा है।
दे जाती तू मायूसी हर वक़्त गैरों की तरह,
मुझे तक़दीर तूने जाने क्या समझा है।
चल ठन जाए आज मेरी-तेरी
देता हूँ चुनौती हर करतूत को।
पाकर रहूँगा जय हर हाल में,
फैसला कर तू बचा बजूद को।
सुलझा लूँगा गुत्थी हर सवालिया
उन्मादी हर सलीके वाज हूँ मैं।
पढ़ रखी हैं लाखों ज़िन्दगियाँ,
फूँकना आता है हर मंत्र ‘मयंक’
कर्मठ अचूक निशाने वाज हूँ मैं।