एक कड़वी सच्चाई … (ग़ज़ल)
एक कड़वी सच्चाई है यह मान लो तुम ,
एक जलतेबारूद के ढेर पर खड़े हो तुम .
खुदा जाने कब किस वक़्त वोह फट जाए ,
अपनी मौत से किस तरह अनजान हो तुम .
हर साल की तरह अब भी मनाया तुमने जश्न ,
धरती के सीने में सुलगती आग से बेपरवाह हो तुम .
तुम्हें नहीं मालूम के वोह सीने में क्या छुपाये है ,
उसके दर्द ,तड़प ,घुटन के ज़िम्मेदार हो सिर्फ तुम.
तुमने ही उजाडा उसका श्रृंगार ,रूप और जवानी ,
और उजाड़ा उसका घर-संसार ,कैसी संतान हो तुम ?
तुमने मार दिए बेजुबान पशु-पक्षी ,पेड़-पौधे बेचारे ,
इनका भी था हक ,मगर यहाँ मालिक बन बैठे तुम .
माँ समान नदियों का आंचल मैला कर दिया तुमने ,
और हवाओं में ज़हर घोलने के भी जिम्मेवार हो तुम .
पापी,दुराचारी,पाखंडीऔ कामीयों का बोझ भी उठाये हुए ,
कब अपना बर्दाश्त खो बैठेगी ,सोच भी नहीं सकते तुम .
समंदर तो वैसे ही अपनी हद पार कर रहा है धीरे -धीरे ,
आसमां उगलने लगा है आग ,यह तो जानते ही हो तुम .
कयामत है सर पर खड़ी, तुम ना जाने कहाँ खोये हुए हो ,
पैरों तले ज़मीं नहीं हँ! नए साल का जश्न मना रहे हो तुम.