एकांकीपन
एकांकीपन……
…………………
मैं प्रति दिन ढाबे पर
भोजन करता हूं
लोग कहते है
घर पे क्यों नहीं बनाते
घर का क्यों नहीं खाते
घर का खाना अच्छा होता है
होटल का खाना
सेहत के लिये कच्चा होता है
हम भी कहते हां जी
अच्छा तो होता है
स्वादिष्ट व सेहतमंद भी
किन्तु क्या करे
समय का आभाव है
आज वाकई
समय हीं तो नहीं
हमारे पास है
परन्तु केवल यही नहीं
एक और बात है
जब मैं छोटा था
माँ मुझे अपने पास बीठाती
रोटियां बेलती
पकाती और
वो फुली हुई ताजी ताजी
गरमागरम रोटियां
बड़े ही प्यार से हमें खिलाती
माँ के हाथ की वो रोटियां
अब तो मिलने से रही
पापी पेट ने हमें
उस मोड़ पर ला दिया
जहाँ हर तरफ
शोर है शराबा हैं
घूटन ही घूटन है
एकांकीपन का सहारा है
अकेले खाना बनाना
उसे अकेले-अकेले खाना
हमें नागवार गुजरता है
नामुराद यह दिल भी तो
नहीं लगता है
ढाबे पर कम से कम
अकेला तो नहीं होता
कुछ लोग होते है
जिनके साथ बैठकर खाना
हमें भाता है
यह साथ कुछ पल ही सही
परिवार का याद तो दिलाता है,
उस पर ढाबे वाले का
पैसों के लिए हीं सही
वो आत्मीयता से पूछना
आप कुछ और लेंगे
एकाध रोटी और
कुछ तो लीजिये
फिर उसका तवे की
एक – एक रोटी लाना
गरमागरम रोटियां खिलाना
इस भागमभाग भरे
माहौल में भी हमें
माँ के हाथ की
उन रोटियों की याद दिला जाता है
मनो मस्तिष्क से
विस्मृत होते जा रहे
विलुप्तप्राय होती
उन तमाम स्मृतियों को
एक पल में हीं
याद करा जाता है।
हम पुरूष हैं
आंशू बहा नहीं सकते
दर्द को सिनें में दफन कर
फर्ज से दामन छुड़ा नहीं सकते
सबको सुखी रखने को
अपने जीने का
वस.एक छोटा सा
सरल सा राह ढूंढते है
सहारा मिले ना मिले
उसी के समकक्ष
एक छोटा सा मगर
सटीक सा पनाह ढूंढते हैं।।
………..
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”