ऊँगली न उठा
जिनको दिल के क़रीब समझा यार।
उन्हीं ने सीने में खंज़र दिया उतार।।
विश्वास की गरिमा तोड़ भूले दोस्त!
तोहमत लगा करना चाहा दाग़दार।।
सोचता रहा आज रातभर सुलगता।
नींद भी नहीं हुई मुझपर गिरफ़्तार।।
शराफ़त को नज़ाकत समझें हैं लोग।
कैसा है ये इंसानों का यहाँ व्यवहार।।
उनकी हर टिप्पणी को मैंने भुलाया।
फिर भी खाए बैठे हैं मुझसे वो खार।।
टूट जाते हैं रिश्ते जहाँ विश्वास मरता।
विरान हो चमन जहाँ न आती बहार।।
मेरा किसी से बातें करना बुरा लगे है।
मैं इंसान हूँ नहीं काटे है जो तलवार।।
मुझपर ऊँगली उठाने वाले ज़रा सोच।
मेरी तरफ़ तो एक तेरी तरफ़ हैं चार।।
अपना-अपना नजरिया हर इंसान का।
कोई चाँद कोई दाग़ का करता दीदार।।
चलो पलायन करें यहाँ रुकना व्यर्थ।
अच्छा सभी को लगे आदर-सत्कार।।
कैसे लोग यहाँ,कैसी इनकी सोच है।
देखना प्रवृत्ति हरेक को गुनाहगार।।
प्रीतम दिल जल रहा रो रहा है दोस्त!
चोट तीखी वाणी अविश्वास भरा भार।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
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