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7 Feb 2018 · 1 min read

उम्र हाथों से’ मेरे फिसलती रही

मापनी- 212 212 212 212

रात, दिन, दोपहर, शाम ढलती रही.
ज़िंदगी रोज़ करवट बदलती रही.

साल दर साल मौसम भी आए गए,
उम्र हाथों से’ मेरे फिसलती रही.

वक्त बचपन से’ पचपन तलक साथ था,
दौड़ने को उमर अब मचलती रही.

रूठना अरु मनाना ज़माना हुआ,
दिल ही’ दिल में ख़ुदी अब पिघलती रही.

आइने ने सदा जब कहा सच कहा,
शक़्ल मेरी उसे जब भी’ छलती रही.

हमसफ़र हो गया आइने की तरह,
ज़िंदगी तब से’ मेरी सँभलती रही.

बज़्म ‘आकुल’ को’ अब रास आती नहीं,
जब अकेले तबीयत बहलती रही.

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