ईश्वर
ईश्वर
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ईश्वर होने विश्वास है भी,
शायद नहीं भी
आपको भी है नहीं भी ,
हम सबको है और नहीं भी है ,
या किसी को भी नहीं है
या सबको है।
विश्वास से कुछ भी कह पाना कठिन है,
सच कह पाना कठिन ही नहीं
तीखा भी है ।
ऐसा न होता तो
ईश्वर को मानते हुऐ भी भला
नकारा क्यों जाता?
समाज में राग ,द्वेष ,अनाचार,
अत्याचार, भ्रष्टाचार ,चोरी ,डकैती, अपहरण ,हत्या ,शील भंग ,जात-पात, नफरत ,आडम्बर ,शोषण ,
झूठ ,फरेब आदि आदि का
यूं बोलबाला न होता।
कहीं न कहीं ईश्वर का भाव
इंसानों को डराता।
आज ईश्वर से डरता कौन है?
आप,आप या फिर आप?
हर कोई ईश्वर को
अपने अपने ढंग से
आंखों पर भ्रम की पट्टी डाले
तौल रहा है जिंदा मेढक की तरह।
कौन ईश्वर, कैसा ईश्वर ,किसका ईश्वर, कहना कठिन है ।
आज के इंसानों का
अपना अंकगणित भी बड़ा विचित्र है।
तभी तो कहा जाता है कि
सबके अपने ईश्वर
और उनके चित्र हैं।
बेहतर है राम ही राम को जानें
ईश्वर ही ईश्वर को पहचानें,
इंसानों के भगवान
होते जा रहे बेगाने।
✍सुधीर श्रीवास्तव