ईश्वरीय सत्ता
जलमग्न धरा कई ओर हुई
मानव पे संकट आय रही,
इस बिपदा से कैसे हों विलग
यह बात सबन को खाय रही।
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तपती धरती कुछ ओर पड़ी
सूखा दिल को दहलाय रही,
है ताप सूर्य का भीषणतम
यह खेतन को है जलाय रही।
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कही बाढ़ग्रस्त कही सूखे से
हर ओर तबाही छाय रही,
कही ताप से ताण्डव मचा हुआ
कही जल जीवन को बहाय रही।
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है रंगमंच यह ईश्वर का
यह बात समय बतलाय रही,
बस कर्ता- धर्ता एक वही
यह बात प्रकृति समझाय रही।
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क्या अपना और पराया कौन
यह वक्त हमें दिखलाय रही
ईश्वर इच्छा के आगे हम
सब बेबस हैं सिखलाय रही।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”