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11 Dec 2016 · 1 min read

ईश्क़ जिसे लाचार कर दे मैं वो नहीं

ईश्क़ जिसे लाचार कर दे मैं वो नहीं
आँख को ख्वाबों से भर दे मैं वो नहीं

चाहिए तो बस तेरी नवाज़िश चाहिए
निस्बत हो जिसको दौलत से मैं वो नहीं

वो वक़्त कुछ और था वो आप ये ना थे
ये वक़्त कुछ और है तो ये मैं वो नहीं

मुझसे फ़ुर्सत की तो बात ही ना करना
भरी दुनियाँ में रहे खाली मैं वो नहीं

अक़्ल तो आती है खुद मुतालियात से
क़िताबों पे ही रहे मताहत मैं वो नहीं

निगाह-ए-करम चाहिए परवरदिगार की
दुनियाँ की चाहत जो पाले मैं वो नहीं

निभाना फ़र्ज़ हो की वादा कहती है ‘सरु’
जिसने सीखा हो मुकर जाना मैं वो नहीं

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