Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Jul 2020 · 15 min read

इक्यावन उत्कृष्ट ग़ज़लें

मेरी किताबों की निःशुल्क पीडीएफ मँगवाने हेतु व्हाट्सएप्प या ईमेल करें।
ईमेल: m.uttranchali@gmail.com / व्हाट्स एप्प न.: 8178871097

(1)

जो व्यवस्था भ्रष्ट हो, फ़ौरन बदलनी चाहिए
लोकशाही की नई, सूरत निकलनी चाहिए

मुफ़लिसों* के हाल पर, आँसू बहाना व्यर्थ है
क्रोध की ज्वाला से अब, सत्ता बदलनी चाहिए

इंक़लाबी दौर** को, तेज़ाब दो जज़्बात का
आग यह बदलाव की, हर वक़्त जलनी चाहिए

रोटियाँ ईमान की, खाएँ सभी अब दोस्तो
दाल भ्रष्टाचार की, हरगिज न गलनी चाहिए

अम्न है नारा हमारा, लाल हैं हम विश्व के
बात यह हर शख़्स के, मुँह से निकलनी चाहिए
_________

*मुफ़लिसों (مفلشوں) — ग़रीबों, बेकसों, बेसहारों
**इंक़लाबी दौर (انقلابی دور) — परिवर्तनकारी (क्रान्तिकारी) युग

(2)

ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो

है मुश्किल दौर, सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हमसे
मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो

नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो ख़ुशहाली
कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें सपने दिखाते हो

अँधेरा करके बैठे हो, हमारी ज़िन्दगानी में
मगर अपनी हथेली पर, नया सूरज उगाते हो

व्यवस्था कष्टकारी क्यों न हो, किरदार ऐसा है
ये जनता जानती है सब, कहाँ तुम सर झुकाते हो

(3)

आप खोये हैं किन नज़ारों में
लुत्फ़ मिलता नहीं बहारों में

आग काग़ज़ में जिससे लग जाये
काश! जज़्बा वो हो विचारों में

भीड़ के हिस्से हैं सभी जैसे
हम हैं गुमसुम खड़े कतारों में

इश्क़ उनको भी रास आया है
अब वो दिखने लगे हज़ारों में

झूठ को चार सू पनाह मिली
सच को चिनवा दिया दिवारों में

__________
*नज़ारों (نظاروں)— भूखों रहकर भी आनंदित-प्रसन्नचित

(4)

ज़िंदगी से मौत बोली, ख़ाक़ हस्ती एक दिन
जिस्म को रह जाएँगी, रूहें तरसती एक दिन

मौत ही इक चीज़ है, कॉमन सभी में दोस्तो
देखिये क्या सर बलन्दी, और पस्ती एक दिन

पास आने के लिए, कुछ तो बहाना चाहिए
बस्ते-बस्ते ही बसेगी, दिल की बस्ती एक दिन

रोज़ बनता और बिगड़ता, हुस्न है बाज़ार का
दिल से ज़्यादा तो न होगी, चीज़ सस्ती एक दिन

मुफ़लिसी है, शाइरी है, और है दीवानगी
“रंग लाएगी हमारी, फ़ाक़ामस्ती* एक दिन”

__________
*फ़ाक़ामस्ती (فاقہ مستی) — भूखों रहकर भी आनंदित-प्रसन्नचित

(5)

बड़ी तकलीफ़ देते हैं ये रिश्ते
यही उपहार देते रोज़ अपने

ज़मीं से आसमाँ तक फैल जाएँ
धनक* में ख़्वाहिशों के रंग बिखरे

नहीं टूटे कभी जो मुश्किलों से
बहुत खुद्दार** हमने लोग देखे

ये कड़वा सच है यारों मुफ़लिसी का
यहाँ हर आँख में हैं टूटे सपने

कहाँ ले जायेगा मुझको ज़माना
बड़ी उलझन है, कोई हल तो निकले

________
*धनक (دھنک) — इन्द्रधनुष (rainbow)
**खुद्दार (خوددار) — स्वाभिमानी

(6)

तीरो-तलवार से नहीं होता
काम हथियार से नहीं होता

घाव भरता है धीरे-धीरे ही
कुछ भी रफ़्तार से नहीं होता

खेल में भावना है ज़िंदा तो
फ़र्क़ कुछ हार से नहीं होता

सिर्फ़ नुक़सान होता है यारो
लाभ तकरार से नहीं होता

उसपे कल रोटियाँ लपेटें सब
कुछ भी अख़बार से नहीं होता

(7)

तलवारें दोधारी क्या
सुख-दुःख बारी-बारी क्या

क़त्ल ही मेरा ठहरा तो
फाँसी, ख़ंजर, आरी क्या

कौन किसी की सुनता है
मेरी और तुम्हारी क्या

चोट कज़ा की पड़नी है
बालक क्या, नर-नारी क्या

पूछ किसी से दीवाने
करमन की गति न्यारी क्या

(8)

सोच का इक दायरा है, उससे मैं कैसे उठूँ
सालती तो हैं बहुत यादें, मगर मैं क्या करूँ

ज़िंदगी है तेज़ रौ, बह जायेगा सब कुछ यहाँ
कब तलक मैं आँधियों से, जूझता-लड़ता रहूँ

हादिसे इतने हुए हैं, दोस्ती के नाम पर
इक तमाचा-सा लगे है, यार जब कहने लगूँ

जा रहे हो छोड़कर, इतना बता दो तुम मुझे
मैं तुम्हारी याद में, तड़पूँ या फिर रोता फिरूँ

सच हों मेरे स्वप्न सारे, जी तो चाहे काश मैं
पंछियों से पंख लेकर, आसमाँ छूने लगूँ

(9)

साधना कर, यूँ सुरों की, सब कहें, क्या सुर मिला
बज उठें सब, साज दिल के, आज तू यूँ गुनगुना

हाय! दिलबर, चुप न बैठो, राज़े-दिल अब खोल दो
बज़्मे-उल्फ़त में छिड़ा है, गुफ़्तगू का सिलसिला

उसने हरदम कष्ट पाए, कामना जिसने भी की
व्यर्थ मत जी को जलाओ, सोच सब अच्छा हुआ

इश्क़ की दुनिया निराली, क्या कहूँ मैं दोस्तो
बिन पिए ही मय की प्याली, छा रहा मुझपर नशा

मीरो-ग़ालिब* की ज़मीं पर, शेर जो मैंने कहे
कहकशाँ सजने लगा, और लुत्फ़े-महफ़िल आ गया

_______

*मीरो-ग़ालिब (میرو-غالب) — अठरहवीं-उन्नीसवीं सदी के महान शा’इर मीर तक़ी मीर (1723 ई.–1810 ई.) व मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ‘ग़ालिब’ (1797 ई.–1869 ई.)

(10)

यूँ जहाँ तक बने, चुप ही मैं रहता हूँ
कुछ जो कहना पड़े, तो ग़ज़ल कहता हूँ

जो भी कहना हो, काग़ज़ पे करके रक़म
फिर क़लम रखके, ख़ामोश हो रहता हूँ

दर्ज़ होने लगे, शे’र तारीख़* में
बात इस दौर की, ख़ास मैं कहता हूँ

दोस्तो! जिन दिनों, ज़िन्दगी थी ग़ज़ल
ख़ुश था मै उन दिनों, अब नहीं रहता हूँ

ढूंढ़ते हो कहाँ मुझको ऐ दोस्तो
आबशारे-ग़ज़ल** बनके मैं बहता हूँ

__________
*तारीख़ (تاریخ) — इतिहास
**आबशारे-ग़ज़ल (آبشارے-غزل) ग़ज़ल का झरना

(11)

लहज़े में क्यों बेरूख़ी है
आपको भी कुछ कमी है

पढ़ लिया उनका भी चेहरा
बंद आँखों में नमी है

सच ज़रा छूके जो गुज़रा
दिल में अब तक सनसनी है

भूल बैठा हादिसों में
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है

दर्द काग़ज़ में जो उतरा
तब ये जाना शाइरी है

(12)

वतन की राह में, मिटने की हसरत पाले बैठा हूँ
न जाने कबसे मैं, इक दीप दिल में बाले बैठा हूँ

भगत सिंह की तरह, मेरी शहादत दास्ताँ में हो
यही अरमान लेके, मौत अब तक टाले बैठा हूँ

मिरे दिल की सदायें, लौट आईं आसमानों से
ख़ुदा सुनता नहीं है, करके ऊँचे नाले बैठा हूँ

थके हैं पाँव, मन्ज़िल चन्द ही क़दमों के आगे है
मुझे मत रोकना, अब फोड़ सारे छाले बैठा हूँ

मिरी ख़ामोशियों का, टूटना मुमकिन नहीं है अब
लबों पर मैं न जाने, क़ुफ़्ल* कितने डाले बैठा हूँ

________

*क़ुफ़्ल (قفل) — ताले (Locks)

(13)

इक तमाशा यहाँ लगाए रख
सोई जनता को तू जगाए रख

भेड़िये लूट लेंगे हिन्दुस्तां
शोर जनतन्त्र में मचाए रख

आएगा इन्कलाब इस मुल्क़ में
आग सीने में तू जलाए रख

पार कश्ती को गर लगाना है
दिल में तूफ़ान तू उठाए रख

लोग ढूंढे तुझे हज़ारों में
लौ विचारों की तू जलाए रख

(14)

अश्क़ आँखों में, यूँ छिपाये क्यों
आग सीने में, तू दबाए क्यों

जब तलक दुश्मनी, न ज़ाहिर हो
तब तलक दोस्ती, निभाए क्यों

ये तो दस्तूर है, ज़माने का
यार रूठा था, तो मनाए क्यों

मिल ही जाएगी, तुझको मंज़िल भी
दिल में तूफ़ान, तू उठाए क्यों

तू ‘महावीर’, जब रहे तनहा
दिल में इक, शोर-सा मचाए क्यों

(15)

फ़न क्या है फ़नकारी क्या
दिल क्या है दिलदारी क्या

पूछ ज़रा इन अश्क़ों से
ग़म क्या है, ग़म-ख़्वारी* क्या

जान रही है जनता सब
सर क्या है, सरकारी क्या

झांक ज़रा गुर्बत में तू
ज़र क्या है, ज़रदारी** क्या

सोच फकीरों के आगे
दर क्या है, दरबारी क्या

________

*ग़म-ख़्वारी (غم-خواری) — सांत्वना
**ज़रदारी (زرداری) — धनसंपन्नता; अमीरी

(16)

हार किसी को भी, स्वीकार नहीं होती
जीत मगर प्यारे, हर बार नहीं होती

एक बिना दूजे का, अर्थ नहीं रहता
जीत कहाँ पाते, यदि हार नहीं होती

बैठा रहता मैं भी, एक किनारे पर
राह अगर मेरी, दुशवार नहीं होती

डर मत लह्रों से, आ पतवार उठा ले
बैठ किनारे, नैया पार नहीं होती

खाकर रूखी-सूखी, चैन से सोते सब
इच्छाएँ यदि लाख, उधार नहीं होती

(17)

दिल से उसके जाने कैसा बैर निकला
जिससे अपनापन मिला वो ग़ैर निकला

था करम उस पर ख़ुदा का इसलिए ही
डूबता वो शख़्स कैसा तैर निकला

मौज-मस्ती में आख़िर खो गया क्यों
जो बशर* करने चमन की सैर निकला

सभ्यता किस दौर में पहुँची है आख़िर
बंद बोरी से कटा इक पैर निकला

वो वफ़ादारी में निकला यूँ अव्वल**
आँसुओं में धुलके सारा बैर निकला

________
*बशर (بشر) — व्यक्ति, मनुष्य
**अव्वल (اول) — श्रेष्ठ

(18)

नज़र को चीरता जाता है मंज़र
बला का खेल खेले है समन्दर

मुझे अब मार डालेगा यकीनन
लगा है हाथ फिर क़ातिल के ख़ंजर

है मक़सद एक सबका उसको पाना
मिले मस्जिद में या मंदिर में जाकर

पलक झपकें तो जीवन बीत जाये
ये मेला चार दिन रहता है अक्सर

नवाज़िश* है तिरी मुझ पर तभी तो
मिरे मालिक खड़ा हूँ आज तनकर

________

*नवाज़िश (نوازش) — कृपा

(19)

धूप का लश्कर* बढ़ा जाता है
छाँव का मंज़र लुटा जाता है

रौशनी में इस कदर पैनापन
आँख में सुइयाँ चुभा जाता है

चहचहाते पंछियों के कलरव** में
प्यार का मौसम खिला जाता है

फूल-पत्तों पर लिखा कुदरत ने
वो करिश्मा कब पढ़ा जाता है

फिर नई इक सुब्ह का वादा
ढ़लते सूरज में दिखा जाता है

________

*लश्कर (لشکر) — बृहद समूह-दल
**कलरव (کلراو) — मधुर ध्वनि में

(20)

क्या अमीरी, क्या ग़रीबी
भेद खोले है फ़क़ीरी

ग़म से तेरा भर गया दिल
ग़म से मेरी आँख गीली

तीरगी* में जी रहा था
तूने आ के रौशनी की

ख़ूब भाएँ मेरे दिल को
मस्तियाँ फ़रहाद** की सी

मौत आये तो सुकूँ हो
क्या रिहाई, क्या असीरी***

________

*तीरगी (تیرگیٔ) — अँधेरे
**फ़रहाद (فرہاد) — ‘शीरीं-फ़रहाद’ नामक प्रेमकहानी का नायक
***असीरी (اسیری) — क़ैद

(21)

बदली ग़म की जो छाएगी
रात यहाँ और गहराएगी

गर इज़्ज़त बेचेगी ग़ुरबत
बच्चों की भूख मिटाएगी

साहिर* ने जिसका ज़िक्र किया
वो सुब्ह कभी तो आएगी

बस क़त्ल यहाँ होंगे मुफ़लिस
आह तलक कुचली जाएगी

ख़ामोशी ओढ़ो ऐ शा’ इर
कुछ बात न समझी जाएगी

________

*साहिर (ساحر) — साहिर लुधियानवी एक प्रसिद्ध शायर तथा फ़िल्मी गीतकार थे। जिन्होंने, ‘वो सुबह कभी तो आयेगी’ लम्बी कविता रची। जिसमें बेबस, मज़लूमों के लिए नई सुबह का ज़िक्र है! जहाँ खुशहाली का सपना साकार होते बताया गया है!

(22)

बीती बातें बिसरा कर
अपने आज को अच्छा कर

कर दे दफ़्न बुराई को
अच्छाई की चर्चा कर

लोग तुझे बेहतर समझे
वो जज़्बा तू पैदा कर

हर शय में है नूरे-ख़ुदा*
हर शय की तू पूजा कर

जब ग़म से जी घबराये
औरों के ग़म बाँटा कर
________

*नूरे-ख़ुदा (نور-خدا) — ईश्वरीय प्रकाश, ज्योति-आभा

(23)

घास के झुरमुट में बैठे देर तक सोचा किये
ज़िन्दगानी बीती जाए और हम कुछ ना किये

जोड़ ना पाए कभी हम चार पैसे ठीक से
पेट भरने के लिए हम उम्रभर भटका किये

हम दुखी हैं गीत खुशियों के भला कैसे रचें
आदमी का रूप लेकर ग़म ही ग़म झेला किये

फूल जैसे तन पे दो कपड़े नहीं हैं ठीक से
शबनमी अश्कों की चादर उम्रभर किये

क्या अमीरी, क्या फ़क़ीरी, वक़्त का सब खेल है
भेष बदला, इक तमाशा, उम्रभर देखा किये

(24)

जमी कीचड़ को मिलकर दूर करना है
उठो, आगे बढ़ो, कुछ कर गुज़रना है

कदम कैसे रुकेंगे, इन्क़लाबी के
बढ़ो आगे, मौत से, पहले न मरना है

मिले नाकामी, या तकलीफ़ राहों में
कभी इल्ज़ाम, औरों पे न धरना है

झुकेगा आसमाँ भी, एक दिन यारों
सितमगर हो बड़ा कोई, न डरना है

उसी को हक़ मिले, जो माँगना जाने
लड़ाई हक़ की है, हरगिज न डरना है

(25)

पग न तू पीछे हटा, आ वक़्त से मुठभेड़ कर
हाथ में पतवार ले, तूफ़ान से बिल्कुल न डर

क्या हुआ जो चल न पाए, लोग तेरे साथ-साथ
तू अकेले ही कदम, आगे बढ़ा होके निडर

ज़िन्दगी है बेवफ़ा, ये बात तू भी जान ले
अन्त तो होगा यक़ीनन, मौत से पहले न मर

बांध लो सर पे कफ़न, ये जंग खुशहाली की है
क्रान्ति पथ पे बढ़ चलो अब, बढ़ चलो होके निडर

बात हक़ की है तो यारो, क्यों डरें फिर ज़ुल्म से
ज़ालिमों के सामने तू आज हो जा बे-फ़िकर*

________

*बे-फ़िकर (بے-فکر) — निश्चिंत, चिन्ताहीन

(26)

रौशनी को राजमहलों से निकाला चाहिये
देश में छाये तिमिर को अब उजाला चाहिये

सुन सके आवाम जिसकी, आहटें बेख़ौफ़ अब
आज सत्ता के लिए, ऐसा जियाला* चाहिये

निर्धनों का ख़ूब शोषण, भ्रष्ट शासन ने किया
बन्द हो भाषण फ़क़त, सबको निवाला चाहिये

सूचना के दौर में हम, चुप भला कैसे रहें
भ्रष्ट हो जो भी यहाँ, उसका दिवाला चाहिये

गिर गई है आज क्यों इतनी सियासत दोस्तो
एक भी ऐसा नहीं, जिसका हवाला** चाहिये

________

*जियाला (جیالہ) — बहादुर, वीर, निडर
**हवाला (حوالہ) — उद्धरण, संदर्भ (Reference)

(27)

काँटे ख़ुद के लिए, जब चुने दोस्तो
आम से ख़ास यूँ, हम बने दोस्तो

राह दुश्वार थी, हर कदम मुश्किलें
पार जंगल किये, यूँ घने दोस्तो

रुख़ हवा का ज़रा, आप पहचानिए
आँधियों में गिरे, वृक्ष घने दोस्तो

क़ातिलों को दिया, हमने ख़न्जर तभी
ख़ून से हाथ उन के, सने दोस्तो

सब बदल जायेगा, सोच बदलो ज़रा
सोच से ही बड़े, सब बने दोस्तो

(28)

बात मुझसे यह व्यवस्था कह गई है
हर तमन्ना दिल में घुटके रह गई है

चार सू जनतन्त्र में ज़ुल्मो-सितम है
अब यहाँ किसमें शराफ़त रह गई है

दुःख की बदली बन गई है लोकशाही
ज़िन्दगी बस आँसुओं में बह गई है

थी कभी महलों की रानी ये व्यवस्था
भ्रष्ट हाथों की ये दासी रह गई है

इंक़लाबी बातों में भी दम नहीं अब
बात बीते वक़्त की बस रह गई है

(29)

क्यों बचे नामोनिशाँ जनतंत्र में
कोई है क्या बागवाँ जनतंत्र में

रहनुमा ख़ुद लूटते हैं कारवाँ
दुःख भरी है दास्ताँ जनतंत्र में

टूटती है हर किरण उम्मीद की
कौन होगा पासवाँ जनतंत्र में

मुफ़लिसी, महंगाई से सब चूर हैं
देने होंगे इम्तिहाँ जनतंत्र में

जानवर से भी बुरे हालात हैं
आदमी है बेज़ुबाँ जनतंत्र में

(30)

फ़ैसला अब ले लिया तो, सोचना क्या बढ़ चलो
जो किया अच्छा किया है, बोलना क्या बढ़ चलो

रास्ते आसान कब, होते किसी के वास्ते
आँधियों से जूझना तो, बैठना क्या बढ़ चलो

इन्कलाबी रास्ते हैं, मुश्किलें तो आएँगी
डर के फिर, पीछे कदम अब, खींचना क्या बढ़ चलो

वक़्त के माथे पे जो, लिख देगा अपनी दास्ताँ
उसके आगे सर झुकाओ, सोचना क्या बढ़ चलो

अहमियत है दोस्तो बस, ज़िन्दगी में वक़्त की
आँख मूंदे वक़्त को फिर, देखना क्या बढ़ चलो

(31)

क्रांति का अब बिगुल बजा देश में
तू भी कुछ इंकलाब ला देश में

कर रहे आम आदमी चेष्टा
इक नया रास्ता खुला देश में

छोड़कर मुफ़लिसों को और पीछे
हुक्मरानों ने क्या किया देश में

कोशिशों से मिली थी आज़ादी
सोचिये हमने क्या किया देश में

हक़ हलाल की लड़ाई की ख़ातिर
होश में आज तू भी आ देश में

(32)

शे’र इतने ही ध्यान से निकले
तीर जैसे कमान से निकले

भूल जाये शिकार भी ख़ुद को
यूँ शिकारी मचान से निकले

था बुलन्दी का वो नशा तौबा
जब गिरे आस्मान से निकले

हूँ मैं कतरा, मिरा वजूद कहाँ
क्यों समन्दर गुमान से निकले

देखकर फ़ख्र हो ज़माने को
यूँ ‘महावीर’ शान से निकले

(33)

जिनके पंखों में दो जहान हुए
वे ही पंछी लहूलुहान हुए

दोस्ती के जहाँ तकाज़े हैं
फ़र्ज़ भी ख़ूब इम्तिहान हुए

सुन नहीं पाए बात मेरी जो
हमवतन मेरे हमज़ुबान हुए

आपने कह दी बात मेरी भी
आप ही दिल की दास्तान हुए

क्यों ‘महावीर’ मौत का डर है
हादिसे रोज़ दरमियान हुए

(34)

दुश्मनी का वो इम्तिहान भी था
दोस्ती की वो दास्तान भी था

रख दिया ख़ुद को दाँव पर मैंने
सब्र का ख़ूब इम्तिहान भी था

मैं अकेला नहीं था यार मिरे!
बदगुमानी* में तो जहान भी था

ख़ून ही तो बहाया बस उसने
शाहे-यूनान** क्या महान भी था

जब बुज़ुर्गों के उठ गए साये
हर क़दम एक इम्तिहान भी था
________

*बदगुमानी (بد گمان) — उलझन में
**शाहे-यूनान (شاہ-یونان) — सिकंदर महान की तरफ इशारा

(35)

क्या कहूँ मैं वक़्त की इस दास्ताँ को
ज़िन्दगी तैयार है हर इम्तिहाँ को

चोट पर वो चोट देता ही रहा है
कब तलक ख़ामोश रक्खूँ मैं ज़ुबाँ को

हर घड़ी बेचैन था, सहमा हुआ था
कह नहीं पाया कभी मैं दास्ताँ को

यूँ तो ऊँचा ही उड़ा मन का परिन्दा
छू नहीं पाया मगर ये आसमाँ को

कारवाँ से दूर मन्ज़िल हो गई है
ऐ ख़ुदा! तू ही बता जाऊँ कहाँ को

(36)

जो हुआ उसपे मलाल करके
क्या मिलेगा यूँ बवाल करके

कौन-सा रिश्ता बचा है भाई
बीच आँगन में दिवाल करके

ख़्वाब में माज़ी* ने जब दी दस्तक
लौट आया कुछ सवाल करके

इस व्यवस्था ने ग़रीब को ही
छोड़ रक्खा है निढाल करके

वक़्त हैराँ है ज़माने से ख़ुद
एक पेचीदा** सवाल करके
________

*माज़ी (ماضی) — अतीत
**पेचीदा (پیچیدہ) — घुमाव–फिराववाला; चक्करदार

(37)

बाण वाणी के यहाँ हैं विष बुझे
है उचित हर आदमी अच्छा कहे

भूले से विश्वास मत तोड़ो कभी
ध्यान हर इक आदमी इसका धरे

रोटियाँ ईमान को झकझोरती
मुफ़लिसी में आदमी क्या ना करे

भूख ही ठुमके लगाए रात-दिन
नाचती कोठे पे अबला क्या करे

ज़िन्दगी है हर सियासत से बड़ी
लोकशाही ज़िन्दगी बेहतर करे

(38)

यह प्रकृति का चित्र अति उत्तम बना है
“मत कहो आकाश में कुहरा घना है”

प्रतिदिवस ही सूर्य उगता और ढलता
चार पल ही ज़िन्दगी की कल्पना है

लक्ष्य पाया मैंने संघर्षों में जीकर
मुश्किलों से लड़ते रहना कब मना है

क्या हृदय से हीन हो, ऐ दुष्ट निष्ठुर
रक्त से हथियार भी देखो सना है

तुम रचो जग में नया इतिहास अपना
हर पिता की पुत्र को शुभ कामना है

(39)

हर घड़ी को चाहिए जीना यहाँ
तल्ख़ियों को पड़ता है पीना यहाँ

ज़िन्दगी भर हँसता-गाता ही रहे
इतना पत्थर किसका है सीना यहाँ

गिर पड़ेंगे आके मुँह के बल हुज़ूर!
छत से गर उतरेंगे बिन जीना यहाँ

रश्क* तुझपे ग़ैर भी करने लगें
यूँ तुझे अब चाहिए जीना यहाँ

क्या हुआ है आज के इंसान को
आँख होते भी है नाबीना** यहाँ

________

*रश्क (رشک) — ईर्ष्या, जलन
**नाबीना (نابینہ) — कम देखने वाला अंधा

(40)

ख़्वाब हमेशा अच्छे बुनना
राहें अपनी खुद ही चुनना

बन जा धुन में मगन कबीरा
बात मगर तू सबकी सुनना

दुनिया के जो मन को मोहे
प्रीत के धागे ऐसे बुनना

बाद में फूल गिराना साहब
काँटे पहले सारे चुनना

अच्छी ग़ज़लें सुननी हो तो
तुम मीरो-ग़ालिब* को सुनना

________

*मीरो-ग़ालिब (میرو-غالب) — अठरहवीं-उन्नीसवीं सदी के महान शा’इर मीर तक़ी मीर (1723 ई.–1810 ई.) व मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ‘ग़ालिब’ (1797 ई.–1869 ई.)

(41)

इक शख़्स था, कहता रहा
इस शहर में, तन्हा रहा

वो ज़हर पीके उम्रभर
हालात से लड़ता रहा

भीतर ही भीतर टूटके
वो किसलिए जीता रहा

कन्धे पे लादे बोझ-सा
रिश्ते को वो ढोता रहा

वो शख़्स कोई और नहीं
हम सबका ही चेहरा रहा

(42)

किस मशीनी दौर में रहने लगा है आदमी
ख़ून के आँसू फ़क़त पीने लगा है आदमी

सभ्यता इक दूसरा अध्याय अब रचने लगी
बोझ माँ-ओ-बाप को कहने लगा है आदमी

दूसरे को काटने की ये कला सीखी कहाँ
साँप के अब साथ क्या जीने लगा है आदमी

लुट रही है घर की इज़्ज़त कौड़ियों के दाम अब
लोकशाही में फ़क़त बिकने लगा है आदमी

क्या मिला इन्सान होकर आज के इन्सान को
ख़ौफ़ का पर्याय बन रहने लगा है आदमी

इक मकां की चाह में जज़्बात जर्जर हो गए
खण्डहर बन आज खुद ढहने लगा है आदमी

(43)

ज़िन्दगी आजकल
आबशार-ए-ग़ज़ल*

क्यों बनाते रहे
रेत के हम महल

अम्न हो चार सू
क्यों न करते पहल

देखकर हादिसे
दिल गया है दहल

इक ख़ुशी पाने को
जी रहा है मचल

गुनगुनाएं भ्रमर
खिल रहा है कमल

________

*आबशार-ए-ग़ज़ल (آبشارے-غزل) — ग़ज़ल का झरना

(44)

राह गर दुश्वार है
हाथ में पतवार है

सच की ख़ातिर दोस्तो
मौत भी स्वीकार है

शे’र है कमज़ोर तो
शा’इरी बेकार है

चुभ रहा है शूल-सा
फूल है या खार है

रिश्ते-नातों में छिपा
ज़िन्दगी का सार है

झूठी ये मुस्कान भी
ग़म का ही विस्तार है

घी में चुपड़ी रोटियाँ
पगले माँ का प्यार है

(45)

क्या कहूँ इंसान को क्या हो रहा है
हर घड़ी ईमान अपना खो रहा है

गिर गया है ग्राफ़ मानवता का नीचे
अपने नैतिक मूल्य मानव खो रहा है

अब नहीं है दर्द की पहचान मुमकिन
हँसते-हँसते आदमी अब रो रहा है

आधुनिक बनने की चाहत में कहीं तू
कांटे राहों में किसी के बो रहा है

घुल गए हैं पश्चिमी संस्कार इतने
नाच बेशर्मी का हरदम हो रहा है

(46)

रह-रहकर याद सताए है
क्यों बेचैनी तड़पाए है

ओढो इस ग़म की चादर को
जो जीना तो सिखलाए है

चुपचाप मिरे दिल में कोई
ख़ामोशी बनता जाए है

क्या कीजै, सब्र का दामन भी
अब हमसे छूटा जाए है

वो दर्द मिला है ‘महावीर’
उड़ने की चाहत जाए है

(47)

बिलखती भूख की किलकारियाँ हैं
यही इस दौर की सच्चाइयाँ हैं

अहम मानव का इतना बढ़ गया है
कि संकट में अनेकों जातियाँ हैं

हिमायत की जिन्होंने सच की यारो
मिलीं उनको सदा ही लाठियाँ हैं

यही सच नक्सली* इस सभ्यता का
कि बीहड़ वन हैं, गहरी खाइयाँ हैं

ग़रीबी भुखमरी के दृश्य देखो
कि पत्थर तोड़े, नंगी छातियाँ हैं

________

*नक्सली (نکسلی) — नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की।

(48)

जितना करते मन्थन-चिन्तन
बढ़ती जाए मेरी उलझन

यूँ तो पुष्प भरी है डाली
सूना सूना लागे आँगन

मान गए कष्टों में जीकर
दुःख की परिभाषा है जीवन

बस ना पाया नगर हिया का
जब से उजड़ गया मन उपवन

जितना स्वयं को मैं सुलझाऊँ
बढ़ बढ़ जाये मेरी उलझन

(49)

ज़हर पीकर जो पचाए देवता वो
जो ग़मों में मुस्कुराए देवता वो

वक़्त के तूफ़ान से डरना भला क्या
दीप आँधी में जलाए देवता वो

दौरे-नफ़रत ख़त्म हो अब तो अज़ीज़ो*
दुश्मनी को जो भुलाए देवता वो

क्यों गिराते हो किसी को यार मेरे
जो गिरे को भी उठाए देवता वो

है सभी का क़र्ज़ माना हमपे यारो!
क़र्ज़ माँ का जो चुकाए देवता वो

________

*अज़ीज़ो (عزیزو) — मित्रो

(50)

टूटकर खुद बिखर रहा हूँ मैं
हार से कब मुकर रहा हूँ मैं

कर लिया खुद से ही जो समझौता
लोग समझे कि डर रहा हूँ मैं

मेरी ख़ामोशियों का मतलब है
मुश्किलों से गुज़र रहा हूँ मैं

ख़ौफ़ का नाम तक नहीं है फिर
किसलिए यार डर रहा हूँ मैं

माफ़ करना मुझे नहीं, बेशक़
वक़्त से पहले मर रहा हूँ मैं

(51)

जां से बढ़कर है आन भारत की
कुल जमा दास्तान भारत की

सोच ज़िंदा है और ताज़ादम
नौ’जवां है कमान भारत की

देश का ही नमक मिरे भीतर
बोलता हूँ ज़बान भारत की

क़द्र करता है सबकी हिन्दोस्तां
पीढ़ियाँ हैं महान भारत की

सुर्खरू* आज तक है दुनिया में
आन-बान और शान भारत की

________

*सुर्खरू (سرخ رو)— प्रतिष्ठित

Language: Hindi
3 Likes · 2 Comments · 359 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
View all
You may also like:
पर्यायवरण (दोहा छन्द)
पर्यायवरण (दोहा छन्द)
नाथ सोनांचली
सुनाऊँ प्यार की सरग़म सुनो तो चैन आ जाए
सुनाऊँ प्यार की सरग़म सुनो तो चैन आ जाए
आर.एस. 'प्रीतम'
लोग एक दूसरे को परखने में इतने व्यस्त हुए
लोग एक दूसरे को परखने में इतने व्यस्त हुए
ruby kumari
2317.पूर्णिका
2317.पूर्णिका
Dr.Khedu Bharti
जय संविधान...✊🇮🇳
जय संविधान...✊🇮🇳
Srishty Bansal
रंजिशें
रंजिशें
AJAY AMITABH SUMAN
Quote
Quote
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
रंगो का है महीना छुटकारा सर्दियों से।
रंगो का है महीना छुटकारा सर्दियों से।
सत्य कुमार प्रेमी
लौट कर रास्ते भी
लौट कर रास्ते भी
Dr fauzia Naseem shad
Needs keep people together.
Needs keep people together.
सिद्धार्थ गोरखपुरी
💐प्रेम कौतुक-297💐
💐प्रेम कौतुक-297💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
मां तुम्हें सरहद की वो बाते बताने आ गया हूं।।
मां तुम्हें सरहद की वो बाते बताने आ गया हूं।।
Ravi Yadav
*हुस्न से विदाई*
*हुस्न से विदाई*
Dushyant Kumar
स्वाभिमान
स्वाभिमान
Shweta Soni
पीड़ित करती न तलवार की धार उतनी जितनी शब्द की कटुता कर जाती
पीड़ित करती न तलवार की धार उतनी जितनी शब्द की कटुता कर जाती
Sukoon
"सूनी मांग" पार्ट-2
Radhakishan R. Mundhra
जिंदगी की हर कसौटी पर इम्तिहान हमने बखूबी दिया,
जिंदगी की हर कसौटी पर इम्तिहान हमने बखूबी दिया,
manjula chauhan
लगा ले कोई भी रंग हमसें छुपने को
लगा ले कोई भी रंग हमसें छुपने को
Sonu sugandh
जज़्बा है, रौशनी है
जज़्बा है, रौशनी है
Dhriti Mishra
-आजकल मोहब्बत में गिरावट क्यों है ?-
-आजकल मोहब्बत में गिरावट क्यों है ?-
bharat gehlot
■ आस्था की अनुभूति...
■ आस्था की अनुभूति...
*Author प्रणय प्रभात*
तुम जो कहते हो प्यार लिखूं मैं,
तुम जो कहते हो प्यार लिखूं मैं,
Manoj Mahato
अनमोल
अनमोल
Neeraj Agarwal
हर शायर जानता है
हर शायर जानता है
Nanki Patre
"सृजन"
Dr. Kishan tandon kranti
दोहा
दोहा
Ravi Prakash
कौन्तय
कौन्तय
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
पिता (मर्मस्पर्शी कविता)
पिता (मर्मस्पर्शी कविता)
Dr. Kishan Karigar
Do you know ??
Do you know ??
Ankita Patel
अज्ञात है हम भी अज्ञात हो तुम भी...!
अज्ञात है हम भी अज्ञात हो तुम भी...!
Aarti sirsat
Loading...