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24 Jul 2020 · 1 min read

आज़ाद गज़ल

अजीबोगरीब खौफ़नाक मंज़र देख रहा हूँ
चलते फिरते खुबसूरत खंडहर देख रहा हूँ ।
मिलतें हैं मुस्कुराकर हाथों में हाथ डाले ये
मगर ज़मीं दिल की बेहद बंज़र देख रहा हूँ ।
किश्तियाँ डूबती कहाँ अब किनारों पे आके
साहिलों से सूखता हुआ समंदर देख रहा हूँ ।
आइने। यारों चिढाने लगते हैं देखकर मुझे
रोज़ खुद का ही अस्थि पंजर देख रहा हूँ ।
क़त्ल कर देता है जो कैफ़ियत बचपन से
हर बच्चे के हाथ में। वो खंजर देख रहा हूँ ।
-अजय प्रसाद

5 Likes · 4 Comments · 350 Views
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