आहट भी ना हुई
आहट भी ना हुई
कब वक़्त गुजर गया,हाथ से फिसलती हुई रेत की तरह,
कल की ही तो बात थी,
जब समझ आयी ज़िंदगी थोड़ा थोड़ा,
रिश्तों की जटिलताएं, हैरान परेशान रहीं करती,
समझते समझाते, चलता रहा समय का पहिया,
दो कदम चलते तो चार कदम रुकते,
पर वक़्त कहाँ रुक पाता,
सरपट दौड़ता रहा यह पंख लगा कर,
और हम भी रहे भागते,
जिम्मेदारियों का बोझ उठा कर,
सोचते रहे सब सुलझा कर
मज़ा लेंगे अपने वक़्त का,पर क्या मालूम था,
कल कल करते करते कल कभी नहीं आएगा,
कल की उम्मीद में खो देंगे,
हम अपने आज को,
पछताने से भी,
अब बिता वक़्त कहाँ लौट कर आएगा,
यह तो गुजर ही जायेगा…….