आम आदमी
अपने लिए ही जीना उसका
खुद के लिए मरजाना,
आम आदमी के जीवन का
इतना है बस फसाना।
रोटी कपड़े को लडता वह
करता जतन है नाना,
फिर भी सुख का कौर न मिलता
भाग्य का करे बहाना।
कभी देखता आसमान को
फिर मन को समझना,
चादर जितनी पैर पसारे
खुद से करे बहाना।
अपने सर पे छत नहीं पर
महल देख ललचाना,
रोज भागता जीवन जीता
साम तलक थक जाना।
सुविधा शुल्क है नाम पड़ा
यह रिश्वत का पैमाना,
राशन खातिर खड़ा कतार में
खड़े – खड़े मर जाना।
सब्जी वाले से लड़ना पर
बात समझ न आना,
एक एक पैसे का है खिचखिच
बीवी को समझना।
जीवन बन गया नर्क सरीखा
स्वप्न में फिर भी रहना,
लाख मुसीबत झेलते जाना
नहीं किसी से कहना।
राजनीति का बड़ा खिलाड़ी
खेल समझ ना पाना,
कठपुतली बन राजनीति का
जीवन जीते जाना।
………….©®
पं.संजीव शुक्ल “सचिन'”