— आपदा मानव जाति की —
आती थी आपदा
उप्पर वाले की मर्जी से
कहीं बाढ़
कहीं भूकम्प
कहीं आंधिया और कभी
कभी तूफ़ान से
कहीं भूस्खलन
कही जगल के शोर से
इंसान झेलता था
सब कुछ
फिर खड़ा हो जाता था
उप्पर वाले के जोर से
पर आज
मेरे देश के भीतर
इंसानी आपदा
हर वक्त सर उठाये खडी है
न जाने कैसे कैसे खौफ्फ़ से
कहीं बलात्कार्
कहीं लूट से
कहीं दुर्घटना
कहीं चोरी डकैती से
कहीं राजनीति के हलचल
और कभी हड़ताल के जोर से
न जाने कैसे कैसे
चल चलते हैं रोजाना
दुश्मन भी चारों और से
नही मिलेगी मुक्ति कभी
मानव के बनी आपदा
के घनघोर शोर से
अजीत कुमार तलवार
मेरठ