आदमी ही आदमी से डरने लगा है
समांत-०
पदांत-लगा है।
२१२२ २१२२ २ २१२२
●● व्यङ्ग्य गीतिका ●●
आदमी ही आदमी से डरने लगा है।
आदमी ही आदमी को डसने लगा है।।१।।
आदमी की शक्ल में ही विषधर बने हैं,
आदमीयत का क्षरण नित होने लगा है।२।।
सेकतें है रोटियां मुर्दों की अनल में,
लोग बलबे में मरे हैं मजमा लगा है।३।।
खेलते हैं लोग ही औरत की अस्मत’ से,
शहर के ही चौक पर फड़ होने लगा है।४।।
बेचते हैं स्वप्न रहबर अब फकत नकली,
इल्म अब इस बात का खुद होने लगा है।५।।
?अटल मुरादाबादी?
।