‘आडम्बर’
रुक जाता हूँ चलते चलते,
थम जाती हैं सांँसें।
देख दोगला रूप जहां का,
मुंद जाती हैं आँखें।।
मखमल-सी कोमल वाणी है,
और चमकता तेज।
अंत: कुटिल कटारी रखते,
काले-दिल-निस्तेज।।
बहिर्मुखी उमंग लिए फिरते,
सच से कोसों दूर।
सच-पर्दा उठते ही मयंक,
मुरझा जाते नूर।।