आठ प्रहर
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दिन, आदमी की तरह
दिन भर-
रहता है सिर धुनता।
रात,औरत की तरह
रात भर-
पटकती है सिर
बलात्कार के विरोध में।
सुबह, पेड़ की तरह
झूमता रहता है
नये संकल्प के साथ।
उल्लास से माथा ऊँचा
चमकता है।
दोपहर,धरती की तरह
ताप में तड़पता हुआ
नँगे पैर भागता रहता है
एक ठौर के लिए।
साँझ, मनुष्य की तरह
निराश,हताश,बदहवास
सूनी आँखों से देखता है
ढलता सूरज।
और बोझिल मन को लगा होता है
समझाने-बुझाने में।
गोधूलि,लौटते खुरों और निढाल पंखों से
उड़ते धूल के गुब्बार के मध्य
लगा होता है
थके,परेशान व खिन्न मन को
समझाने,बुझाने में।
आधी रात,मनुष्य के भाग्य की तरह
नि:शब्द,खामोश,व स्तब्ध
अस्तित्वहीन होकर ज्यों
पड़ जाता है सुप्त।
उषा,मानव के तमाम टूटे सपनों को
जोड़कर
उसके निराशाओं को तथा
सागर में डूबोने में
जाती है लग।
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