आखिर हम किस ओर जा रहे हैं?
हम किस ओर जा रहे हैं? अपने वजूद को खोने तो नहीं लगे हैं? सभ्यता तार- तार हो रही है, संस्कृति पतन के पथ पे अग्रसर हो रही है, बड़े-छोटे का लिहाज अंतिम सांसे ले रहा है, प्रेम, ममत्व, आदर, सम्मान, सेवा-सत्कार आज भीष्म पितामह की तरह सवशैया पर लेटा लाचार दिखने लगा है।
आखिर हम जा किस ओर रहे है?
क्या ये वहीं प्रगतिशीलता का एकमेव मार्ग है जिसके तलाश में हम सदियों से खोजरत थे! संयुक्त परिवार अब पुस्तकों की विषय वस्तु मात्र हैं। बड़े -बुजूर्ग आज बृद्धाश्रम की शोभा बढाने को मजबूर हो रहे है। बच्चे माँ बाप के बजाय आया द्वारा पलने लगे हैं।
गुरु-शिष्य का रिश्ता भी आज व्यवसायिक हो गया है , मास्टर जी की वो ज्ञानदायिनि छड़ी अब नजाने कहाँ खो गई।मित्रता आज स्वार्थ साधना की अहम कुंजी बन गई है।
हम सभी पे अंग्रेजियत का भूत सवार हो चूका है, जिसके फलस्वरूप हम अपनी धरातल, अपनी पूरखों की विरासत हमारी संस्कृति हम खोते जा रहे हैं।
आज एक, दो, तीन की जगह वन, टू, थ्री ने ले लिया। क, ख, ग, विलुप्त होने के कागार पे खड़ा है। हम वाकई आधुनिक हो गये है।
कभी भक्ति रस का पान करने वाले हमारे उस समाज को आज “डी.जे.” नामक संक्रमण ने संक्रमित कर दिया है।
रिश्तों का विखण्डन आज अपने चर्मोत्कर्ष पर है। समाजिकता कहीं खो सी गई है।
स्वार्थपरकता, वैमनस्यता सर्वत्र अपना पाव जमा चूकी है।
हमारे गांव जो कभी पगड़ंडीयों, बाग-बगीचो, कुयें-तालाबों, कच्चे मकानों एवं अपने निर्मल संस्कारों व सुमधुर सभ्यता के द्वारा पहचाने जाते थे आज वहाँ भी शुन्य का वास दिखता है।
आखिर हम किस ओर चल पड़े हैं?
क्या सही मायने में संप्रभुता के चरम बिन्दु तक आ चूके हैं या इससे भी कुछ और आगे जाना बाकी है?
क्या यहाँ से हम उसी पिछड़ेपन की ओर लौट सकते हैं जहाँ संयुक्त परिवार था, आपसी भाईचारा व समाजिक सत्कार था, जहाँ दादी की कहानियां, माँ की लोरी, दादा का दुलार भरा फटकार था।
क्या ऐसा हो सकता है या हम बहुत आगे निकल चुके है जहाँ से वापसी का कोई मार्ग ही शेष न रहा।
अब तो एक ही मार्ग दृश्य हो रहा है!
हे प्रभु अब करो तुम प्रलय
एक सृष्टि नई रचाने को
आज जो अपने दूर हो रहे
फिर से उन्हें मिलाने को।
पं. संजीव शुक्ल “सचिन”
दिल्ली
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