आईना समाज का
गीत खुशी के कैसे गाऊं
जब चारों ओर अंधेरा है
कोई हमारी बात करता नहीं
बस सब तेरा और मेरा है।।
कहीं उजड़ रहे घर अब
फैली हुई महामारी से
कुछ बिछड़ रहे अपने अब
नफरत की बीमारी से।।
मेरी मस्जिद उसका मंदिर
यही जाप हम करते हैं
इंसानियत कब समझेंगे हम
इंतजार रब भी करते हैं।।
कहीं बाढ़ तो कहीं है सूखा
ऐसी विषमता दिखती है
कहीं गर्मी से बेहाल है लोग
कहीं हमेशा बर्फ दिखती है।।
किसी के पास बच्चों को खिलाने
के लिए रोटी भी नहीं मिलती है
और किसी के घर में महंगी महंगी
गाडियां रोज़ बदलती दिखती है।।
नहीं मालूम कैसी ये लाचारी है
जो मानवता पर भी भारी है
नारी की पूजा करने वाले देश में
हिंसा का शिकार ही नारी है।।
तमाम विकृतियां आ गई है
हमारे इस संसार में
मन को कैसे स्थिर रखें अब
ऐसे इस माहौल में।।
दर्द एक दूसरे का बांटते नहीं
बस अवसर ढूंढते है सब
जीते जी कभी मिलते नहीं
मौत पर आंसू बहाते हैं सब।।
है बात कड़वी लेकिन आज यही
सच्चाई बन गई है इस दुनिया की
परछाई पर भी विश्वास नहीं रहा
सच्चाई हो गई है इस दुनिया की।।