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30 Sep 2018 · 1 min read

आँसू

आँसू

नयनों के सागर मध्य रहा
ये मुक्तक सीप समाहित सा,
निष्ठुर जग मोल लगा न सका
रह गया ठगा उत्साहित सा।

विकल व्यथाएँ जलते उर की
क्रंदन करती धधक रही हैं,
करुण वेदनाएँ कुंठित हो
आँसू बनकर छलक रही हैं।

विरह वेदना सहकर आँसू
उत्पीड़ित मन से रुष्ट हुए,
निश्छल ममता अविरल रोई
बहते आँसू क्या शुष्क हुए?

तनया की आँखों के आँसू
मधुर स्नेह से सने हुए हैं,
घूँट ज़हर का पिया पिता ने
अंतस में छाले बने हुए हैं।

सुख-दुख के सहचर ये आँसू
आजीवन साथ निभाते हैं,
मूक अधर की भाषा बनकर
अपना परिचय दे जाते हैं।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

Language: Hindi
231 Views
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