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9 Jul 2021 · 1 min read

आँखें

लाज से, शर्म से ख़ुद ही में सिमटती आँखें
बाज़ू-ए-इश्क़ में बल खा के लरज़ती आँखें

साँस में, रूह में, तन-मन में उतर आई थीं
हाय वो खुश्बू-ए-उल्फ़त से महकती आँखें

रह के ज़िन्दा भी सरे आम वो मर जाती हैं
दोस्त अहबाब की नज़रों से जो गिरती आँखें

किस तरह आँख न ज़ालिम की भर आई होगी
देखकर प्यास की शिद्दत से तड़पती आँखें

लोग हिन्दू व मुसलमान जिन्हें कहते, वो
मादरे हिन्द पे हैं जान छिड़कती आँखें

बन्द आँखों से ये कानून की कैसे दिखतीं
एक मज़लूम की बेवा की सिसकती आँखें

आदमीयत में पगे ख़ुशगवार माज़ी की
जुस्तजू में हैं अभी चन्द भटकती आँखें

चन्द लम्हों में चढ़ा है ये सुराही का नशा
देखकर एक हसीना की बहकती आँखें

बाँटती हैं ‘असीम’ दो जहान की ख़ुशियाँ
बात ही बात में चिड़ियों सी चहकती आँखें
©️ शैलेन्द्र ‘असीम’

Language: Hindi
239 Views
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