अहं के भर्म में
अहं के भर्म में……
रात के अँधेरे में , जब दिन का प्रकाश हो
तो रात को दिन नहीं माानना चाहिये ;
और जिस ने मान लिया , उस का दिन भी;
जिंदगी भर अँधेरा हो गया |
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |
सम्भाला था , नन्नेह हाथो को ,
सम्भाला था , डगमडाती कदमो को
कहीं गिर के चोट न लगे
कहीं दर्द से आंसू न निकले |
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |
किया तेरे हर ख़ुशी में
अपनी ख़ुशी कुर्बान
याद आती है वह दिन
तो गुहार नहीं करता |
कियूं की तू मेरा था ,
अपनों से क्या गिला ||
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |
पर गम ज़रूर है, कि परवरिश में तेरी
शायद मेरी, कहीं कोई कमी रही होगी |
पर अब फर्क नहीं पड़ता,
कियूं की तू किसी का नहीं
सिर्फ अपना है |
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |
फिर भी डरता हूँ , कहीं तुझको तेरे अपने
जो पराये हैं , धोका न दे दें |
कियूं की पानी जब , खून से गहरा हो जाये
तो पानी , पानी नहीं — कीचड़ होता है |
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |
मुझे तो ग़म संवारने का भी हक नहीं
अपनों की खुशी में , मेरा गम भी क़ुर्बान
चंद पलकों की ज़िंदगी बाकि ,
ख्वाईश है कुछ करने की ,
ताकि कुछों की ज़िंदगी में ख़ुशी भर दूँ
और उनकी ख़ुशी की मुस्कुराहट देख
अलविदा हो सकूँ |
सुबह ढलती है, शाम ढलती है , रात ढलती है;
पर अपनों का दिया , ग़म नहीं ढलता |