अहंकार
अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह का मूल है ।अहंकार का स्वरूप मैं का स्वरूप होता है। अर्थात कार्य करने का श्रेय व्यक्ति स्वयं ही लेता है ,और अपने आप को महिमामंडित करता है। मेरे पूज्य गुरुदेव श्री भारत भूषण त्यागी जी कहते थे।”
बकरी जो मैं मैं करती है, अपनी गर्दन कटवाती है।
और इस प्रकार मैं का स्वरूप अहम स्वरूप है ।उसके द्वारा ब्रह्म का मूल स्वरूप छिप जाता है ,
और व्यक्ति कृतिम रूप में अपने आप को व्यक्त करता है।
मित्रों, जब शिशु जन्म लेता है, तो जब मां उसे पुकारती है तो शिशु हूं कहकर जवाब देता है। अर्थात शिशु कहता है मां मैं ब्रह्म हूँ,अहम् ब्रह्मास्मि ।किंतु जैसे-,जैसे उसे अपने पराये,और आसपास का ज्ञान होने लगता है। वह अहंकार से घिरने लगता है ,और बच्चा अपने मूल ब्रह्म स्वरूप को छोड़कर, मैं स्वरूप हो जाता है। तमोगुणी रजोगुणी व्यक्ति में अहंकार मुख्य गुण होता है। किंतु सतोगुणी व्यक्ति अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते। इसीलिये निषेध की आवश्यकता हुई ।कहा गया है।
” अति सर्वत्र वर्जयेत ”
जब अहंकार की अति हो जाती है तो उस व्यक्ति का मान मर्दन होना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण स्वरूप रावण और बाली जैसे महाबली राजाओं का मान मर्दन भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने किया था ।भगवान कृष्ण ने कहा, हे, अर्जुन जब जब व्यक्ति के अहंकार में वृद्धि होती है तब तब उसका नाश मैं ही करता हूं। दुर्योधन में अहंकार बहुत हो गया था जिसका मान मर्दन भगवान कृष्ण महाभारत का युद्ध आयोजित कर किया था । इसी प्रकार जरासंध को भी अपने अपराजेय होने का घमंड था, जिसका मान मर्दन भगवान कृष्ण ने भीम के द्वारा कराया था। अहंकार का निषेध आवश्यक हैं। इसीलिए भारतवर्ष में वयोवृद्ध जनों को महत्त्व दिया जाता है। जिससे, कि वे अपने विवेक के द्वारा बच्चों के अहंकार को नष्ट कर उन्हें सच्ची राह पर चलने की सीख दे सकें।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव,” प्रेम”