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30 Nov 2018 · 15 min read

अस्मिता एवं अस्तित्व से जूझती कविताएँ

अस्मिता एवं अस्तित्व से जूझती कविताएं
– मोतीलाल
जब हम कविताओं पर बात करते हैं तो बरबस हमारे ख्याल में यही आता है कि आखिर ढेर सारी कविताओं के बीच, फिर से ये कवितायेँ क्या अपनी जगह बना पायेगी या फिर उस रास्ते पर जा पायेगी जो सही दिशा दिखाती हो और चुनती हो वो राहें जिस पर अनेक कविताओं ने जाने का साहस तो किया परन्तु समय के कितने थपेड़ों के बीच अपने-आपको अपनी अस्मिता के साथ बचा पायी. कविताओं के लंबे इतिहास में कई दौर ऐसे भी आये कि कविता जन-जन की कविता बनने से चुकी भी है और हाशिये पर ढकेला भी गया है. इन सबके बावजूद कविताये तब थी और आज भी है. साहित्य ने कविताओं को सहेजा भी है, कदम-दर-कदम आगे बढ़ाया भी है और यह काम लगातार जारी है.

इधर एक पुस्तक आई है “समकालीन हिंदी कविता – खंड-2” इस पुस्तक में 109 कवियों को पिरोया गया है और यहाँ देखा जा सकता है कि समकालीन दौर की हिंदी कविता का स्वर तथा धारा इसमें प्रकाशित कविताओं से होकर यथासंभव आज के दौर से टकराती, जूझती और अपना रास्ता तय करती है. यह तो तय है कि प्रस्तुत पुस्तक में जहाँ स्थापित कवि हैं तो दूसरी ओर ऐसे भी कवि हैं जो अपनी बानगी में समकालीन तो है ही, साथ ही अपने पूरे जिजीविषा के साथ उपस्थित हैं. इस पुस्तक में कई विषयों को आधार बनाकर रची गई कवितायेँ जहाँ विचारों को झंकृत करती हैं वहीँ जीवन के कई पहलुओं को धार भी प्रदान करती है.

वस्तुत: समग्र कविताओं के अवलोकन में अपने समय से मुठभेड़ करती आज की समकालीन कवितायेँ यहाँ पूरे शिद्धत के साथ समय, समाज, प्रकृति जैसे कई आवरण को छेदती-भेदती अपना रास्ता खुद तय करती आगे बढ़ती हैं. हम यहाँ आश्वस्त हो सकते हैं कि सारी चिंताओं के बीच भी और मानव के प्रतिपल खंडित होते रहने के राह के बीच भी कई नई दिशा दिखाती यहाँ उपस्थित हैं कवितायेँ. यह पुस्तक पठनीय तो है साथ थी संग्रहणीय भी. सभी कवियों के प्रतिनिधित्व करती उनकी पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींचती हैं. जैसे:-

अनिल प्रभा कुमार जी की पंक्तियाँ – रिश्तों का यह दरवाजा/बहुत खुला है/इसमें कोई ताला या/सांकल भी नहीं वहीं आचार्य बलवंत जी की – बाँट दी गई माँ की लोरी/मुन्ने की बंट गई कटोरी/भेंट चढ़ गया बंटवारे की/पूजावाला थाल. अलका अग्रवाल जी लिखती है – उम्र की दहलीज पर/बचपन सवार है/तन हो गया नौका/मन हुआ पतवार है. अमरेश सिंह भदोरिया की पंक्ति है – कलम चले यूँ झुक-झुककर/सत्य लिखे कुछ रुक-रूककर/फिर भाग्य मनुजता का फूटे/किश्ती जब नाविक खुद लुटे. आनंद वर्धन शर्मा जी की पंक्ति है – हम रोज फेंकते है ज़माने में/बदनीयती, नफरत के सैकड़ों पत्थर/जब ये लौट कर आयेंगे/कैसे अपना वजूद बचा पाएंगे. अनिल कुमार पाण्डेय जी लिखते हैं – उसका न होना ही होना है/आज के लोगों को सच बताने के लिए/हमारा होना यथार्थ को झुठलाना है/बहाना है सच को छुपाने के लिए. डॉ.अरविंद कुमार जी लिखते हैं – वक्त की बेचैनियों का दर्द जब रिसने लगता है/आदमी के अंदर जब कई आदमी बन जाते हैं/तो वह कभी-कभी खुद को भूल जाता है/और स्वार्थ की चादर ओढ़कर जीने लगता है. अश्विनी कुमार आलोक लिखते हैं – वह कनखियों से देखकर मुझे/उदास क्यों हो जाती है पता नहीं/वही रहती है मेरी आँखों में/उसके चले जाने के बाद तक यहाँ रिश्तों की रवानगी अपने-अपने तरह से चित्रित हुए हैं. असलम हसन जी की पंक्ति है – इन्ही हालात में, जो अच्छा सोच सकते थे/उन्हें बोलने की मनाही थी/और जो बोल सकते थे/उनकी जुबां फिसल रही थी. डॉ.अन्नापूर्णा श्रीवास्तव जी लिखती हैं – मेरा टक्कर चंदा से/मेरा टक्कर सूरज से/तुलना ही नहीं/उनसे मेरी/सागर तट पर हो/ज्यों बूंद अकेली. आलोका कुजूर कहती है – इस बार करम में/नगाड़े की गूंज में वो दर्द था/खोये हुए लोगों की खोज थी/उजड़े हुए बस्ती को पुकारता था/गायब हुए लोगों को देता आवाज था. उर्मिला शुक्ल जी की पंक्ति है – मैंने गढ़े/ताकत और उत्साह से/भरे भरे/कुछ शब्द मगर/उन्हें छीन लिया मठाधीशों ने/दे दिया उन्हें धर्म का झंडा/उन्मादी हो गए/मेरे शब्द/तलवार लेकर/मिटाने लगे/अपना ही वजूद. कुँवर रविन्द्र जी लिखते हैं – कविता/सृष्टि से अब तक चल कर/आज भी/विरह और प्रेम से आगे नहीं बढ़ पाई/आदमी/अब भी कंदराओं में अलाव ताप रहा है/आदमी कविता नहीं हो पाया/कविता आदमी नहीं हो पाई. डॉ.कविता विकास जी लिखती हैं – नन्हा सा मुस्कुराता पौधा/तमाम विषमताओं के बीच जब/जीवन की परिभाषा गढ़ता है/तब मुझे आभास हो जाता है/तुम यहीं कहीं हो मेरे आस-पास. कीर्ति श्रीवास्तव जी का कहना है – खोज रही हूँ आज मैं/वह झरोखा/जहाँ प्रेम के दीप/जला करते थे/खो गए वो चौपाल/और चौबारे/जहाँ दर्द साथ बांटा करते थे. कृष्ण देव तिवारी लिखते हैं – उनकी आंखे बोल रही थी/खुद से मुझको तौल रही थी/समझ न आया तेरी प्रीति नई/लल्ला तेरी दोषी है कैकेई. कृष्ण मनु जी कहते हैं – जब लगती है भूख/खाकर रोटी करते हैं क्षुधा शांत/पर थाल तक रोटी आयी कैसे/क्या सोचते हैं हम. कृष्णा शर्मा जी कहती हैं – जहाँ तुम्हारा प्यार बरसता था/शब्दों की बदलियों से/होठों पर कुछ बूंदें ठहर कर/याद दिला रही है तुम्हारी मिठास को. डॉ.चित्रलेखा की पंक्ति है – रोटी और स्त्री/हाशिये पर खड़ी है/अब भी…/अपनी सम्पूर्णता की तलाश में. चंद्रमोहन किस्कू जी का कहना है – हिंसा के इस काल में/युद्ध के डरावने समय में/लंबे निराश/और बेरंग जीवन में/तुम से चाह रहा हूँ/केवल थोड़ी सी शांति/थोड़ी सी मिठास/और थोड़ा सा प्यार/इस जीवन के लिए. डॉ.छवि निगम कहती है – बताने को और क्या था/वहां केवल अराजक बिखराव था/कुछ सुना सुना सा इतिहास था/गाथा का अंत क्या, कब कहाँ होगा, ज्ञात किसे/पर यकीन है/ये स्वार्थी राजनीति का किया धरा अनर्थ ही होगा/वो फुसफुसाहट, अवश्य कोई वाद हुआ होगा/और चीटियों…/या कहें कि आदम शवों से पटी वो किताब/जरुर कोई धर्मग्रन्थ ही रहा होगा. जयति जैन की पंक्ति है – प्यार सम्मान आदर लो और दिया करो/बिन इनके कैसे आनंद उठाओगे/ये दुश्मनी की जड़े हैं साहब/बगावत नहीं स्नेह से मिटा पाओगे. ज्योतिकृष्ण वर्मा जी का कहना है – वो गढ़ता है/मिट्टी से/चीजें कई/मैं/गढ़ता हूँ/खुद को/रोज/कुछ काट-छांट कर/ताकि बना रहूँ/किसी तरह/जिंदगी की चाक पर. जनार्दन मिश्र जी का कहना है – शब्द भेदी और अर्थ भेदी होता है यह कमबख्त वक्त/जब किसी को जरुरत होती है इसे पहचानने की/तो यह लगता है किसी को मायानगरी की सैर कराने. जालाराम चौधरी जी की पंक्ति है – जीवन है एक पहाड़ की तरह/उसमें लगाते हैं लोग दहाड़/जीवन को सँवारने में/बांचते हैं अपने मेहनत की मेंड़. दिव्या माथुर जी लिखती हैं – आज तुम ढेरों लेकर आए हो/काश…/कि मेरे जीते जी लाते/सिर्फ एक गुलाब/और देख पाते/मेरे चेहरे की आब/गालों पर/उगे सैकड़ों गुलाब. डॉ.दिग्विजय कुमार शर्मा जी का कहना है – मुझे क्या फ़िक्र है/मैं कश्तियाँ और दोस्त/बेमिसाल लिए बैठा हूँ/उलझनों की कशमकश में/उम्मीद की ढाल लिए बैठा हूँ. दीपक अवस्थी का कहना है – चाँद तेरी थाली में रख दूँ/बेटा तू नादान बहुत है/एक किरण उजली आने को/नन्हा रोशनदान बहुत है. नीरज नीर की पंक्ति है – कुछ भी अपरिहार्य नहीं/सत्य पर सब मौन है/मैं वही बताता हूँ/काल का चक्र कब रुका/चलता रहता निरंतर है. नीरजा हेमेन्द्र जी लिखती हैं – स्त्री के बिना घर/दीवारों से घिरा भूखंड है/संवेदनहीन…..सारहीन…./स्त्री होना अभिशाप नहीं है/इच्छाओं के पंखों पर उड़ कर/बाँध सकती है वह/अश्वमेध का अश्व सूर्य तक/स्त्री सम्पूर्ण है…. नीलम पारिक जी लिखती हैं – जब तुम मेरी मौत के साधन जुटा रहे थे/मैं कोयल संग गीत कोई गुनगुना रही थी/आज तुम अवसाद में डूबे हुए हो/मैं आज भी खोई हूँ/निहारने में/खुबसूरत तितलियों के पर. डॉ.निहारिका जी की पंक्ति है – क्यूँ मैं भ्रमित हूँ, क्यूँ तुम्हारा दिलासा चाहिए/क्यूँ अच्छे से जीने को तुम्हारा बहाना चाहिए/क्यूँ नहीं तुम्हें घटाकर जीना आना चिहिए. डॉ.नीना छिब्बर जी लिखती हैं – यह शहर लगाता है बोली इंसानों की भोर में/चुन देता है बिटिया, मुनिया एवं बहुरिया को/दीवारों, सड़कों और पत्थरों की खानों में. नवीन कुमार जैन जी का कहना है – धक्के खा रहा हूँ मैं/लड़खड़ा के सम्हलता जा रहा हूँ मैं/जिंदगी की तंग गलियों में भी/चलता जा रहा हूँ मैं. पवन चौहान जी लिखते हैं – बिंदली चाट रही है प्यार से/अपने अन्नदाता का स्पर्श भरा हाथ/एक अंतहीन गम सीने में लिए/दोनों एक-दूसरे को तसल्ली देने में गुम है/जबकि दुनिया दौड़ा रही है आवारा गायों को/कीलें लगे डंडे से/हर रोज. प्रसन्न कुमार झा जी का कहना है – खीँच लाना चाहता हूँ तुम्हें/उस प्रेम झोपड़े में/जहाँ ढिबरी जला कर/बाढ़ के पानी को सेंक/लगाता है कोई. पूजा आहूजा कालरा जी लिखती हैं – जिंदगी फिर रह जाएगी अधुरी/वक्त गुजर जायेगा/जिंदगी के पलटते पन्नों के तरह/आने वाले अच्छे पल में/बैठी गिनती रहूंगी उँगलियों पे/वक्त हथेलियों से सरक जायेगा. पूर्ति खरे जी लिखती हैं – सारी आवाजें पृष्ठों पर/बहुत सी भटक रही हैं/मेरे दरवाजे पर/कुछ आंगन में बैठी हैं/प्रतीक्षा में कि कब/उनकी ध्वनि मेरी प्रतिध्वनि बनें. पूजा अग्निहोत्री जी लिखती हैं – बहुत मंजिलें न हों घर में/और न चाहूँ मोटर यान/प्रेमगंध से गमके हर कोना/बस यह मेरा अरमान. प्रोमिला भारद्वाज की पंक्ति है – ठोकर लग जब-जब उछली/इच्छाओं की पोटली/छिटक के कुछ छलकी/तन पे गिरी बिजली/तृप्त मन की संतुष्टि जली/तड़पे जैसे जल बिन मछली. डॉ.प्रीति प्रवीण खरे जी की पंक्ति है – अंधेरों का बौनापन/अंतस में उजाले/ज्ञान/आनंद/प्रेम का संसार/जीवन में गति/शब्द ही तो है. डॉ.प्रमोद सोनवानी जी लिखते हैं – कोई कहता जरा बताओ/कितने लड्डू खाये जी/मुन्ना झट शरमाकर कहता/जितने जो भी लाये जी. पिंकी कुमारी बागमार जी कहती हैं – तुम मुझे अपनी बाँहों में भरना/मैं तुम्हारी आंखे पढ़ लूँ/तुम मेरी ख़ामोशी समझना/मैं रूठ जाऊं तुमसे/तुम मुझे फिर से मनाना/हमारे प्यार की शमा आज तुम फिर से जगाना. प्रेम चन्द भार्गव जी कहते हैं – खाई बढ़ती ही जा रही/भावनाओं के दरम्या/ह्रदय दरक रहे/बंजर भूमि के समान/संसार श्मशान हो गया/जाति-धर्म, ऊँच-नीच का/पलड़ा भारी हो गया. बिशन सागर जी कहते हैं – हम दोनों के बीच/एक खाई थी ख्यालों की/जो मैं उसके लिए महसूस करता/उसमे वो एहसास मेरे लिए/कभी पैदा ही नहीं हुए/फिरभी हम चलते रहे/साथ-साथ सामानांतर/रेल की पटरियों जैसे. मणि मोहन जी की पंक्ति है – बेशुमार चीजें थीं/मामूली/बेहद मामूली सी/पर जिनकी तरफ देखो/तो विस्मय से भर देती थी/एक दिन/अपनी अपेक्षा से दुखी होकर/सबने छोड़ दिया/भाषा का घर. मंजुल भटनागर जी कहती हैं – राम का आयोजन/पुरजोर है/सर्प फन उठाने लगा है/एक और मर्दन/फिर उस पर राजनीति/राम का उद्घोष. महिमा श्री जी कहती हैं – टूटा है तारा/कई होंठ बुदबुदाते हैं धीरे-धीरे/ख्वाहिशे फिर कहीं जागी है हौले-हौले/अबकि बारिश हरी कर गई है हसरतें/बो गई है कई सपने/जगा गई हैं फिर हसरतें. मनोज चौहान जी कहते हैं – वह युवा थे/मगर थे प्रभाव में उन लोगों के/जो हो गए थे हावी उनकी सोच पर/बन गए थे कठपुतली/आडम्बरियों के हाथों की. मार्टिन जॉन जी का कहना है – किलकारियों की मीठी बारिश से/धुंधलका आंचल लहराती/बगिया में उतरती शाम ठिठक गई/उधर सूरज के बढ़ते कदम भी रुक गए/इशारों ही इशारों में जाने क्या बात हुई/धूप का टुकड़ा सतरंगी हो गया. गीता दास जी कहती हैं – नए चेहरे अब घरों में नहीं/कारपोरेटों के जाल में या सोशल साइटों में अटें मिलते हैं/सूट-बूट टाई में कभी-कभी झांक लेते हैं/ऐतिहासिक मीनारों या किलों की ओर/पर वे घरों में झांक ही नहीं पाते/समय चुक जाता है हमेशा ही/उनकी सूची से. डॉ.माधवी कुलश्रेष्ठ जी लिखती हैं – शादी के बाद ही तो/यह फर्क नजर आता है/बेटे की चाहत में/दूसरा सहारा लिया जाता है/वंश के नाम पर/लड़कियों को दबाया जाता है/पैदा होने से पहले ही तो/उन्हें कोख में मिटाया जाता है. डॉ.मनिंदर कौर जी लिखती हैं – डरना नहीं हैं हमें आंधी और तूफानों से/मुख इनका इक बार मोड़ कर तो देखो/नज़ारे बहुत हैं देखने को इस जहाँ में/नजर अपनी इक बार उठा कर तो देखो. महेश शर्मा जी लिखते हैं – हर तरफ बंदूक है/बम है, बारूद है/जहाँ भी असहमति है/कोई सवांद नहीं. मेरी पंक्ति है – तुमसे मिलकर/अंतिम इच्छा की तरह/कोई ताप नहीं बनती है/कि शब्द से परे अस्तित्व के सारे पंख/बीते कालखंड से कस्तूरी की खोज में/पल-पल भीतर टूटता रहे. मृणाल आशुतोष जी कहना है – दिन भर रहा भूखा/बहुत कोशिश की कुछ तो खा लूँ/नाकामयाबी ने फिर भी दामन नहीं छोड़ा. रवि भूषण पाठक जी लिखते हैं – नीतिवादी करते थे दिन-रात/हथियारों पर मीनाकारी/त्रिकालदर्शियों की सर काट दी गई थी/सर्वज्ञों को मिला था देशनिकाला. राजवंत राज जी कहती हैं – जमीन की जकड़न को/दिल से महसूस करो/आत्मा में उतार लो/आत्मा कभी मरती नहीं/ये जकड़न फिर तुम्हें सींचेगी/तुम फिर पनपोगी/बस जमीन से न उखड़ने देना अपने पैर. राज्यवर्धन जी का कहना है – किसी शातिर ने/अपने स्वार्थ के लिए/प्रकृति चित्रित लैंडस्केप में/नन्हें सूरज की जगह/आग की लपटों को/उकेर दिया है. रामनगीना मौर्य जी लिखते हैं – चेहरे पर हरवक्त/रहस्यमय गंभीरता की चादर ओढ़े रहनी पढ़ती है/गूंगे-बहरे बने, हाथ बांधे, मुहं मोड़े/निरपेक्ष भाव खड़े रहना पड़ता है/तयशुदा मानकों, प्रतिमानों को फ़ॉलो करना पड़ता है/संवेदनाओं-सरोकारों को ताक पर रखे रहना पड़ता है. रानू मुख़र्जी जी लिखती हैं – स्वाभाव से ही/सहज होता है इंसान/जैसे फूलों में सुगंध/चांदनी की शीतलता/सांप का दंश/वैसे ही/प्रेम की तड़प/अनायास. रेखा चमोली जी कहती हैं – तुम बात को समझने के बावजूद/नासमझी को ढोंग कर रहे हो/और सही बात दूसरों को पता न चले/अपनी सारी ताकत/इसी में लगा रहे हो/परेशानी यह है कि/मैं यह बात लोगों को समझा नहीं पा रही हूँ. राजकुमार जैन जी का कहना है – अंधेरों से घिरा मैं/रौशनी पकड़ना चाहता हूँ/खंडहर पुकार रहे हैं मुझे/नई जिंदगी पाने को. रणजीत कुमार सिन्हा जी लिखते हैं – मूतने, हगने तक के सिर्फ आप अधिकारी हैं/बाकी सब बीमारी है/शिक्षातंत्र सबसे अधिक मूल्यहीनता का दरबारी है/बलात्कारी का पक्ष लेना भी बलात्कारी है/यह समाज नंगापन का/इतिहास रचने का कर रहा तैयारी है. डॉ.राकेश मोहन नौटियाल जी की पंक्ति है – चाहे गीता पढ़ लो चाहे कुरान या बाइबिल/सभी मृत्यु के अटल सत्य को स्वीकारते हैं/पर जो इस धरती पर आया है/उसे इक दिन सब कुछ छोड़कर जाना है/यह ख्याल श्मशान में ही आता है. राजीव कुमार तिवारी जी कहना है – किसी के ऊपर/मुश्किलों का पहाड़ गिरता दिखता है तो/उसकी मदद में अपना कंधा लगा देता हूँ/मुझे मोक्ष हासिल होगा या नहीं/नहीं पता…/पर इतना पता है मुझे कि मन पर मेरे/किसी ग्लानि, क्षोभ, कुंठा/या पश्चाताप का भार नहीं रहता. रोहित ठाकुर जी कहते हैं – शहर के घरों की किवाड़/जो अक्सर बंद रहती है/किसी के आने की अटकलें लगाता है/खाली आंगन और खाली घर के बीच/बंद किवाड़ हवा में महसूस करता है/सूली पर चढ़ा होना. रवि कुमार जी की पंक्ति है – जड़ दिया है तुमने/मेरे मुख पर एक ताला/उसमें भी अंकुरित हो चुका है नन्हा सा पौधा/जो उम्मीदें जगाता है तुम्हारे लौट आने की/अब पथरा गयी हैं ऑंखें/कि अब लौट भी आओ. रितु गोयल जी लिखती हैं – फख्र है मुझे कि मैं औरत हूँ/बस चेहरे पर चेहरा चढ़ाना मुझे नहीं आता/खामोश जिंदगी भी बोलती है मेरे लिए/अहम के आसमां पर चढ़ना मुझे नहीं आता. रीता नामदेव जी लिखती हैं – मैं आऊंगा/तेरे हजारों हजार रूपों को/आकर गले लगाऊंगा/अपना तुझे बनाऊंगा/तेरे संग नाचूँगा गाऊंगा/आऊंगा मेरी प्रिय मैं/तेरे लिए मैं फिर आऊंगा. रेखा पी मेनोन जी कहती हैं – यह नहीं ख सकती कि मैं उदास थी/मगर आँखों में नमी जरुर थी/मैं आहिस्ता-आहिस्ता हर चीजों से गुजर रही थी/जो मेरे आसपास थी. रूपम कुमारी जी की पंक्ति है – अमेट कर अपने अंदर पर्वत शिलाओं को/संकीर्ण कंदराओं को/रेगिस्तान की थरथराहटों और प्रचंड धाराओं को/चलो आज प्रतिकूल हवाओं पे वार करते हैं/हां चलो अपने चित्त को एकाग्र करते हैं. रविता चौहान जी लिखती हैं – रोई थी खून के आंसू/जब छलनी जिस्म हुआ/इसमें क्या है दोष भला/दुनिया में आये शिशु का. लक्ष्मीकांत मुकुल जी का कहना है – परदेश कमाने गए इन युवकों की जड़ें/पसर नहीं पाती वहां की धरती में/बबूल की पेड़ों पर छाये बरोह की तरह/गुजारते हैं वे अपना जीवन/मूल निवासियों की वक्रोत्ति से झुंझलाए/कम मजदूरी पर खटते हुए, लौटना चाहते हैं अपने गाँव. डॉ.लता अग्रवाल जी की पंक्ति है – पत्थरों के देश में दिल भी पत्थर के हुए हैं/जिंदगी हुई खेल के मानिंद, आज है और कल नहीं/पाषण प्रतिमाओं के बीच सिमटने तुझको न दूंगी/अस्मिता हूँ तेरी मैं, मनुजता तेरी खोने न दूंगी. वन्दना शुक्ला जी की पंक्ति है – अब मेरा अस्तित्व परिंदे के घोसले सा नहीं/जिसे कोई हवा का झोंका उड़ा सके/अब मेरा अस्तित्व रेत पर बना घरौंदा नहीं/जिसे समुद्र की लहर बहा सके/क्योंकि अब मेरा अस्तित्व बदल गया है/जबसे मेरे बेटे ने मुझे माँ कहा है. विनोद कुमार दवे की पंक्ति है – सन्नाटा सुनता रहता है आवाज के क़दमों की आहट/महज इस इंतजार में कि/आवाज भी कभी सुन पायेगी/बिखरती हुई ख़ामोशी को. विनोद कुमार विक्की जी कहते हैं – जिसके मेहनत की उपज पर/निर्भर भारत भाग्य विधाता है/आज आत्महत्या करने को मजबूर/वो भारत का अन्नदाता है. विशेष चंद्र जी की पंक्ति है – जिन जंगलों से गुजरोगे/वहां आखेट के लिए/सिर्फ तितलियाँ ही बचेंगी/तुम तीर चलाकर/किसी हवा को जख्मी कर जाओगे/पत्तों से खून टपकेगा/तितलियाँ फरार हो जाएँगी मीलों दूर. वर्षा कुमारी जी लिखती हैं – मुझे अहसास है कि मातृभूमि पर/क्या-क्या होता है/अगर हमें तकलीफ है तो/उस मातृभूमि को भी जरुर होती है. डॉ.शबाना रफ़ीक जी की पंक्ति है – पा गई मंजिल को अपने जमीर से/वो औरत ही थी जिसके दामन में/महरूमियों के साथ/ख्वाहिशों के रंग चमकीले थे. शहंशाह आलम जी कहते हैं – सच्ची, डरे हुए हम नहीं हैं/डरे हुए दुनिया के हुक्मरां हैं/जो डरकर हम पर जुल्म करते हैं/यह सोचते हुए कि इस तरह/वे मेरी-तुम्हारी शायरी को डरा देंगे हमेशा के लिए. डॉ.शिव कुशवाहा जी की पंक्ति है – तब्दील हो गए मुहावरे/धधकते हुए विचारों की खराद पर/ढलता हुआ समाज/गढ़ रहा है नए प्रतिमान/चल रहा अंदर ही अंदर/एक अघोषित युद्ध/असमानता के विरुद्ध. डॉ.शिवानी सिंह जी लिखती हैं – रूह तक तुम ही समाये/साँस बन कर पास आये/रूठ कर जाना न हमसे/ये सताना बंद कर दो. शिल्पा बम्बोरिया जी की पंक्ति है – खैर, टूटते बनते इरादों की लहर में/नए सपने भी पैदा हो जाते हैं/टीस रहती है अधूरे ख्वाबों की/पर नए ख्वाब देखते रहना/अब मेरे मन की एक नई लट है/चाहे जो भी हो, हां फिरभी/जिंदगी कुछ तो खुबसूरत है. शिरोमणि महतो जी का कहना है – उनके बोलने में चलने में हंसने में रोने में/महीन कला की बारीकियां होती है/पतले-पतले रेशे से गढ़ता है रस्सा/कि कोई बंधकर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता. शकुंतला पालीवाल जी लिखती हैं – कदम ना डगमगाने पाए तेरे होगी जीत तेरी यक़ीनन/मंजिल भी मिलेगी जरुर अमावस की रात कटेगी/काली घटायें छंट कर दीदार सहर को होगा तुझे/बस तु कदम अपने आगे बढ़ाता चल. श्रीप्रकाश सिंह जी का कहना है – शाख से टूटी पत्ती का मैं स्पंदन हूँ/भूखे बच्चे को लोरी सुनाती माँ का क्रंदन हूँ/पत्थर पर घिसकर अफ़सोस मैं बिखर गया/वर्ना शीतल, सुगंधित मैं भी एक चंदन हूँ. सुधा राजे जी लिखती हैं – कल वहां जो पर्वतों के साथ हँसते थे नगर/कल वहां जो झील के मंदिर किनारे थी डगर/कल वहां जो खिलखिलातीं लड़कियां थी नाव पर/उनके रक्तिम अंत का अभिप्राय पढ़कर रो पड़े/मित्र तेरी पीर फिर अन्याय पढ़कर रो पड़े. सतपाल सिंह पंवार जी की पंक्ति है – उबली हुई कवितायेँ ख़राब नहीं होती/ये माहौल निर्मित करती है/एक बदलाव का/एक विप्लव का/एक आन्दोलन का… सुजाता प्रसाद जी लिखती हैं – दरअसल ख़ुशी तो/हमारे केंद्र में होती है/हम ही खुद को/परिधि की ओर/प्रस्तावित करते रहते हैं/अपने इर्द-गिर्द/खुशियों को छोड़कर/उलझनों की/अनेकानेक त्रिज्याएँ/खींचते रहते हैं. संजय वर्मा जी का कहना है – बद्तमिजों को सबक सिखाने/वासंतिक छटा में टेसू को/मानों आ रहा हो गुस्सा/वो सुर्ख लाल आंखे दिखा/उत्पीड़न के उन्मूलन हेतु/रख रहा हो दुनिया के समक्ष/वेदना का पक्ष. संदीप कुमार जी की पंक्ति है – मेरे शब्दों की ये भाव-अभिव्यंजना/समाज को कसोट के शायद झकझोर जाती है/पर जब-जब सत्य आंगन द्वार पर भटके मेरे/मन-किवाड़ बंद हो जाते है. डॉ.संगीता नाथ जी कहती हैं – जिंदगी क्या सचमुच/अनबुझ, जटिल एक पहेली हो तुम/जिसे सुलझाने में/बचपन, जवानी निकल जाती है/अधेड़ावस्था और बुढ़ापे के दो मुहाने पर/खड़े सोचते हैं सब/क्या खोया और क्या पाया हमने. डॉ.संगीता गाँधी जी लिखती हैं – कुछ बुजुर्ग थे जो कभी बैठे मिलते थे/मेरे कमरे की खिड़की के नीचे/अब सुना है कहीं किसी लाईन में लगे हैं/जीने के लिए बहुत सी लाईनों में लगना अब जरुरी है. संदीप मोहर की पंक्ति है – मैं आज भी मैं की/अतुलनीय शाब्दिकता से अनजान हूँ/मैं अंततः स्वयं को/परिभाषित किये जाने को उत्सुक व परेशान हूँ. सत्य शर्मा कीर्ति जी लिखती हैं – सावन की हरियाली/अब दिखती ही नहीं है कहीं/की जाड़े की धूप भी/यूँ शाम ढले पहाड़ो पर/से ही गुजर जाती है. संध्या विश्व जी कहती हैं – पता नहीं पर कुछ तो है/अनजानी ली अपनेपन की/क्षणिक स्मृतियाँ और जिजीविषा/जिसकी मौजूदगी से पल-प्रतिपल/मन के आंगन में अनुभूतियों से परे/सांसों की यात्रा का मधुरिम अहसास/करवट बदल रहा है. सुविधा पंडित जी की पंक्ति है – काम बनाने के इंतजाम में तू यों न खो जा/अपमान के इंतकाम में तू यों न खो जा/देख अपने आस-पास भी तू जरा-जरा/औरों के आंसू पोंछने में मसरूफ हो जा. सीमा सक्सेना की पंक्ति है – जबसे प्रेम को जाना/कोई ईश्वरीय शक्ति मनप्राण में बस गई/जीवन में सच्चे प्रेम को पाना/मुश्किल तो है/पर नेकनीयत से मिल ही जाता है. संध्या चतुर्वेदी जी की पंक्ति है – टूट गई कली दिल की/बिखर गई जिंदगी/खिल के हंसने वाली तेरी गुड़िया/एक हंसी को मोहताज हुई. सुधा तिवारी जी लिखती है – नदी खुब मुस्कायी थी उस रोज/मुहब्बत के गुलाबी कँवल खिले होगें जरुर/दूर किसी ठहरे पानी में/आज पूरी की पूरी नदी ठहर पड़ी है/पर अफ़सोस की कोई कँवल नहीं खिलता यहाँ/कि पानी मर गया है यहाँ शायद. सुबोध श्रीवास्तव जी का कहना है – देखना एक रोज/जरुर समझेगें लोग तुम्हें/तब खुब सुनेंगे/और दूर तलक जाएगी तुम्हारी बात/सचमुच बहुत अच्छा लगता है/जब कोई सुनता है हमारी बात. सतीश मिश्र जी की पंक्ति है – जरुर सब ठीक होगा/एक आवाज हूँ मैं/नीरव नहीं/एकालाप नहीं/सामूहिक चेतना की आवाज. डॉ.सुनीत कुमार पारिट जी की पंक्ति है – क्या हल्ला था मोहल्ले में/आज सन्नाटा छाया हुआ है/गर हो सके तो वही बचपना/वापिस कर दो यही दुआ है. डॉ. स्नेहलता नेगी जी लिखती हैं – हम पहाड़ के लोग/पहाड़ से टेढ़ा उतरना तो जानते हैं/पर नहीं जानते जिंदगी में/आड़ा, टेढ़ा चढ़ना. डॉ.स्वदेश मल्होत्रा जी कहती हैं – सागर गहरा/और उस पे रहता है दर्द का पहरा/इस दर्द के सागर में/गहराई तक उतरकर ही जाना जा सकता है/हंसी के पीछे का दर्द/और दर्द का मर्म. डॉ.सोनिया माला जी लिखती हैं – हर कोई मांग रहा/आरक्षण का लिबास/जला रहें घर बेकसूरों के/सरकारी संपत्तियां हो रही खाक/चाह कर भी/नहीं हो रहा कोई हिसाब. हरि प्रकाश गुप्ता जी का कहना है – ये मेरे संसार के मालिक/कर ऐसा कुछ चमत्कार/धोखा और बेईमानी का/लगा हुआ है मेला/ढूंढे से भी नहीं मिलता यहाँ/सत्य, ईमान का ठेला.
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संपर्क: बिजली लोको शेड, बंडामुंडा, राउरकेला – 770 032, ओडिशा
फोन-9931346271/वाट्सअप-7978537176/ई-मेल-motilalrourkela@gmail.com

पुस्तक : समकालीन हिंदी कविता खण्ड-2
संपादक : डॉ. रजिया बेगम
प्रकाशक : सृजनलोक प्रकाशन
B – 1, दुग्गल कॉलोनी, खानपुर, नई दिल्ली – 110062
मूल्य : रू.300/-

Language: Hindi
Tag: लेख
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