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30 Sep 2019 · 4 min read

अन्ना आंदोलन से उपजी रचनाएँ (भाग: एक)

(1.) जो व्यवस्था भ्रष्ट हो

जो व्यवस्था भ्रष्ट हो, फ़ौरन बदलनी चाहिए
लोकशाही की नई, सूरत निकलनी चाहिए
मुफ़लिसों के हाल पर, आंसू बहाना व्यर्थ है
क्रोध की ज्वाला से अब, सत्ता बदलनी चाहिए
इंकलाबी दौर को, तेज़ाब दो जज़्बात का
आग यह बदलाव की, हर वक्त जलनी चाहिए
रोटियाँ ईमान की, खाएँ सभी अब दोस्तो
दाल भ्रष्टाचार की, हरगिज न गलनी चाहिए
अम्न है नारा हमारा, लाल हैं हम विश्व के
बात यह हर शख़्स के, मुँह से निकलनी चाहिए

(2.) ग़रीबों को फ़क़त

ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो
है मुश्किल दौर, सूखी रोटियाँ भी दूर हैं हमसे
मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो
नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो ख़ुशहाली
कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें सपने दिखाते हो
अँधेरा करके बैठे हो, हमारी ज़िन्दगानी में
मगर अपनी हथेली पर, नया सूरज उगाते हो
व्यवस्था कष्टकारी क्यों न हो, किरदार ऐसा है
ये जनता जानती है सब, कहाँ तुम सर झुकाते हो

(3.) सीनाज़ोरी, रिश्वतखोरी

सीनाज़ोरी, रिश्वतखोरी, ये व्यवस्था कैसी है
होती है पग-पग पर चोरी, ये व्यवस्था कैसी है
कष्टों में गुज़रे जीवन, जाने कैसा दौर नया
टूटी आशाओं की डोरी, ये व्यवस्था कैसी है
सबकी ख़ातिर धान उगाये, ख़ुद मगर न खा पाए
दाने को तरसे है होरी, ये व्यवस्था कैसी है
जनता फांके करती है, अन्न सड़े भण्डारों में
भीग रही बारिश में बोरी, ये व्यवस्था कैसी है

(4.) इक तमाशा यहाँ

इक तमाशा यहाँ लगाए रख
सोई जनता को तू जगाए रख
भेड़िये लूट लेंगे हिन्दुस्तां
शोर जनतन्त्र में मचाए रख
आएगा इन्कलाब भारत में
आग सीने में यूँ जलाए रख
पार कश्ती को गर लगाना है
दिल में तूफ़ान तू उठाए रख
लोग ढूंढे तुझे करोड़ों में
लौ विचारों की तू जलाए रख

(5.) जमी कीचड़

जमी कीचड़ को मिलकर दूर करना है
उठो, आगे बढ़ो, कुछकर गुज़रना है
कदम कैसे रुकेंगे इन्क़लाबी के
हो कुछ भी, मौत से पहले न मरना है
मिले नाकामी या तकलीफ़ राहों में
कभी इल्ज़ाम औरों पे न धरना है
झुकेगा आसमाँ भी एक दिन यारों
सितमगर हो बड़ा कोई, न डरना है

(6.) पग न तू पीछे हटा

पग न तू पीछे हटा, आ वक़्त से मुठभेड़ कर
हाथ में पतवार ले, तूफ़ान से बिल्कुल न डर
क्या हुआ जो चल न पाए, लोग तेरे साथ में
तू अकेले ही कदम, आगे बढ़ा होके निडर
ज़िन्दगी है बेवफ़ा, ये बात तू भी जान ले
अंत तो होगा यक़ीनन, मौत से पहले न मर
बांध लो सर पे कफ़न, ये जंग खुशहाली की है
क्रान्ति पथ पे बढ़ चलो अब, बढ़ चलो होके निडर

(7.) रौशनी को राजमहलों से

रौशनी को राजमहलों से निकाला चाहिये
देश में छाये तिमिर को अब उजाला चाहिये
सुन सके आवाम जिसकी, आहटें बेख़ौफ़ अब
आज सत्ता के लिए, ऐसा जियाला चाहिये
निर्धनों का ख़ूब शोषण, भ्रष्ट शासन ने किया
बन्द हो भाषण फ़क़त, सबको निवाला चाहिये
सूचना के दौर में हम, चुप भला कैसे रहें
भ्रष्ट हो जो भी यहाँ, उसका दिवाला चाहिये
गिर गई है आज क्यों इतनी सियासत दोस्तो
एक भी ऐसा नहीं, जिसका हवाला चाहिये

(8.) काँटे ख़ुद के लिए

काँटे ख़ुद के लिए जब चुने दोस्तो
आम से ख़ास यूँ हम बने दोस्तो
राह दुश्वार थी, हर कदम मुश्किलें
पार जंगल किये यूँ घने दोस्तो
रुख़ हवा का ज़रा आप पहचानिए
आँधियों में गिरे वृक्ष घने दोस्तो
क़ातिलों को दिया, हमने ख़न्जर तभी
ख़ून से हाथ उनके सने दोस्तो
सब बदल जायेगा, सोच बदलो ज़रा
सोच से ही बड़े, सब बने दोस्तो

(9.) बात मुझसे यह व्यवस्था

बात मुझसे यह व्यवस्था कह गई है
हर तमन्ना दिल में घुटके रह गई है
चार सू जनतन्त्र में ज़ुल्मो-सितम है
अब यहाँ किसमें शराफ़त रह गई है
दुःख की बदली बन गई है लोकशाही
ज़िन्दगी बस आँसुओं में बह गई है
थी कभी महलों की रानी ये व्यवस्था
भ्रष्ट हाथों की ये दासी रह गई है

(10.) क्यों बचे नामोनिशाँ

क्यों बचे नामोनिशाँ जनतंत्र में
कोई है क्या बागवाँ जनतंत्र में
रहनुमा ख़ुद लूटते हैं कारवाँ
दुःख भरी है दास्ताँ जनतंत्र में
क्यों किरण रह-रह के अब है टूटती
कौन होगा पासवाँ जनतंत्र में
मुफ़लिसी महंगाई से भयक्रांत है
देने होंगे इम्तिहाँ जनतंत्र में
जानवर से भी बुरे हालात हैं
आदमी है बेज़ुबाँ जनतंत्र में

(11.) फ़ैसला अब ले लिया

फ़ैसला अब ले लिया तो सोचना क्या बढ़ चलो
जो भी होगा अच्छा होगा, बोलना क्या बढ़ चलो
राह कब आसान है, कोई हमारे वास्ते
आँधियों के सामने फिर बैठना क्या बढ़ चलो
इन्कलाबी रास्ते हैं मुश्किलें तो आएँगी
डर के अब पीछे कदम फिर खीचना क्या बढ़ चलो
वक्त के माथे पे जो लिख देंगे अपनी दास्ताँ
उनके आगे सर झुकाओ, सोचना क्या बढ़ चलो

(12.) बाण वाणी के

बाण वाणी के यहाँ हैं विष बुझे
है उचित हर आदमी अच्छा कहे
भूले से विश्वास मत तोड़ो कभी
ध्यान हर इक आदमी इसका धरे
रोटियाँ ईमान को झकझोरती
मुफ़लिसी में आदमी क्या ना करे
भूख ही ठुमके लगाए रात-दिन
नाचती कोठे पे अबला क्या करे
ज़िन्दगी है हर सियासत से बड़ी
लोकशाही ज़िन्दगी बेहतर करे

•••

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