अधीर मन
अधीर मन यह बोल रहा
अब धीर धरुं तो धरुं कैसे।
यह पीडा है दुखदायी बडी
यह पीर सहूँ तो सहूँ कैसे।।
कब तक यूँ ही मन तडपेगा
यह पीर भी हमें रुलायेगी।
इस पीडा से मन की गगरी
अब रोज भरूँ तो मरुँ कैसे।।
मै निश्कलंक निस्पापी था
किन्तु मै भाग्य भिखारी था।
इस भाग्य में वर्णित मृत्यु से
हर रोज मरुँ तो मरुँ कैसे ।।
यह जीवन एक बिद्यालय है
यह सुख दुख का ही आलय है।
इस आलय से जो विष है मिला
उसे नित्य पीऊ तो पीऊ कैसे।।
यह निर्धनता दुखदायी बडी
इसमें सहनी कठीनाई पडी।
इस कठीनाई के बोझ तले
अब नित्य दबूं तो दबूं कैसे।।
अधीर मन अब बोल रहा
धीर धरुं तो धरुं कैसे।
यह पीडा है दुखदायी बडी
यह पीर सहूँ तो सहूँ कैसे।।
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”