अजीब दुनिया रिश्तों की…?
कैसी अजीब दुनिया है यै रिश्तों की
खाकर धोखे हृदय उन्हे ही ढूँढता हैं
देते हैं जहर प्यार से फिर भी
कदम उन्हीं का चूमता है।
कैसी अजीब दुनिया है ये रिश्तों की?
यहाँ पलते है धोखे धर शक्ल प्यार का
चूभोते है खंजर ले शक्ल यार का
देकर जान भी मन उन्हीं पे मरता है
जूदा तन से रुह फिर भी
ऐतबार उन्हीं पे करता
ये प्यार उन्हीं से करता है।
कैसी अजीब दुनिया है ये रिश्तों की?
हर कदम पे धोखा, चुभोते है ये खंजर
चोट देके दिल पर, बेधते हैं हृदय,
चोट खाता हृदय, पर उन्हें ही ढ़ूंढता है
उन्हें ही पूजता है।
बख्सते नहीं किसी को साधते स्वार्थ पूरी
स्वार्थ साधना बन गई
हर रिश्ते की मजबूरी
सहकर हर इल्जाम
मन फिर भी उन्हीं मे रमता है
कैसी अजीब दुनिया है ये रिश्तों की?
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”