अकेली (कविता)
अकेली (कविता)
नयन मेरे सूने रहे,
अधरों पर निस्तब्धता रही।
खड़ी रही दुनिया के चौराहे पर,
किसी अपने को ढूंढने हेतु।
परन्तु हाय ! यह कैसा अनर्थ,
हर आते -जाते पथिकों में।
किसी में भी मानवता नहीं मिली,
स्नेह न मिला,अपनापन न मिला,
और दया भी ना मिली।
अब तो साँझ होने जा रही है,
मेरे एकांकी जीवन की।
आखिर क्यों तरसती रही तमाम उम्र,
एक क्षणिक सा स्नेह पाने में।
ओह ! कितनी मुर्खता की मैने,
मानव को पहचानने में ।