ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)
ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)
कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं
ना ही रोशनी आये ,ना खुशबु ही बिखर पाये
हालत देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं
दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं
अब सन्नाटे के घेरे में ,जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं
ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)
मदन मोहन सक्सेना

मदन मोहन सक्सेना
Shahjahanpur ( U.P)
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मदन मोहन सक्सेना पिता का नाम: श्री अम्बिका प्रसाद सक्सेना संपादन :1. भारतीय सांस्कृतिक समाज...

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