
Jul 22, 2016 · कविता
सवाल तुमसे.....
कभी देखा है
अग्निमुख नग के
साये में बसे
घरों की लुटी पिटी
तहस नहस
दुनिया…
टुकड़ों में कटी
दरारों में फटी
खुले ज़ख्म सी टीसती
रिसती दुनिया
कैसा लगता है जब
जलते लावे में घुला मलबा
गन्दे विचारों सा
उबल पड़ता है
बिखर जाता है
करीने से सजे कमरों पर
बरसने लगती है
टनों राख
मरे हुए रिश्तों की….
और दब जाते हैं
सब जिन्दा इन्सान भी
उसी के नीचे…।
जब जब आता है
बवंडर
घूमती हैं प्रलयंकर
हवाएँ
उखड़ते हैं जमे हुए
दरख़्त
और खिंच जाती हैं रेखाएं
मृत और अर्धमृत के मध्य
और याद आते हैं मुझे
बेतरह
जमीन का सीना चीर कर
झाँकते
मोहनजोदोडो के
खंडित शिवाले
माचू पिचू के सुनसान
टूटे खंडहर
बामियान के उजड़े
भग्न मंदिर
मानती हूँ बारूद
अपेक्षित है
नवनिर्माण से पूर्व
पर क्या निर्माण संभव है
आपके बिना
नत हत विहत
मैं आपसे पूछती हूँ
प्रणवीश…?
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हम फकीरों का बस इतना सा फ़साना है, न अम्बर मिला न ज़मीं पे आशियाना...

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