
Apr 30, 2017 · कविता
विचलित सा मन
विचलित सा मन है मेरा
कभी तरु छाया के अम्बर सा
कभी पतझड़ के ठूंठ सा
कभी प्रसन्न मैं,कभी दुखी क्रोधित सा
मैं भींगा-भांगा सा,डरा डरा सा
एक पल में उड़ जाता हूँ
कल्पना के नील गगन में
इधर उधर मंडराता हूँ नभ सा
चले चलता हूँ हवा के झोंको सा
रुकूँ तो महसूस करूं अस्थिर सा
कभी लगता हूँ शांत सरोवर के जल सा
चित तो है मेरी चंचल
फिर कभी कभी क्यों हो जाता हूँ मृत सा
खुद को खुद से समझाता हूँ
ना हो हताश रीतेश!इंसानों जैसा
बुनता रह कुछ भी तू, कर्मयोगी बनके
लगातार मकड़ी जैसा…


You may also like: