
Nov 26, 2018 · कविता
~माँ~
अब तू बूढ़ी हो गई है माँ,
तेरे जैसा खाना अब कोई नहीं बनाता,
तेरे जैसी लोरियां कोई नहीं सुनाता,
तेरी बाहों से सुरक्षित कोई जगह कहाँ,
हर पीढ़ा पर मुहँ से निकलता माँ,
वो स्नेह भरे सिर पर फिरते हाथ,
गलती पर प्यार भरी वो डांट,
आगे अंधेरा पर राह दिखाती माँ,
ज़ख्मों पर प्यार का लेप लगाती माँ,
तेरे आँचल की छांव रखे हमे अमीर,
माँ के बिना हर दौलतमंद हो फकीर,
तेरे ऋण हम कैसे चुका पायेंगे?
मूल क्या ब्याज भी न लौटा पायेंगे |
– डॉ० मंजू शर्मा
(जयपुर)
This is a competition entry: "माँ" - काव्य प्रतियोगिता
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