Nov 21, 2018 · कविता
माँ
माँ
पार करने के बाद देहरी तेरी
ज़िद और अल्हड़पन के पर्दे सरक गए हैं
सपनो में जीने वाली ये गुड़िया तेरी अब
अपनो की आँखों में सपने भरने लगी है माँ
अपना हक़ लड़कर भी लेने वाली लाडो अब
मान अपमान को परे रख मुस्कुराने लगी है
मूंद कर पलकें जब भी खुद को सोचती हूँ तो
लगता है जैसे तू मेरा आईना हो गई है माँ
बिटिया से आगे एक स्त्री होने के पड़ाव पर
अब तुम मेरे लिए माँ से भी आगे बढ़ गई हो
वक्त के निशां चेहरे पर अपने देखती हूँ मैं जब भी
जिंदगी इतिहास का दोहराव लगती है माँ
अब हाथों में जब तुम थामती हो हाथ मेरा
यह एहसास बहुत गहरा गए हैं
संवेदनायें उंगलियो की पोरों से बहकर
हम दोनों की आँखों को नम कर देती है माँ
शिरीन भावसार
इंदौर (म.प्र.)
21.11.2018
This is a competition entry: "माँ" - काव्य प्रतियोगिता
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स्नेह बंधन से इंकार नही मुझे लेकिन बंधन स्वीकार नही🙏

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