
Aug 9, 2016 · कविता
"धरती का श्रृंगार "
आज नवरूप धरा है मैनें,
पंखुरी-पंखुरी सजाया मैनें,
अलग रंग अलग रूप देखो ,
धानी-धानी सी चुनर हुई है ,
सोंधी-सोंधी सी खुशबू समेटे,
सोलह श्रृंगार कर नव वधू सी,
मन-तरंग में स्वप्न सजो कर ,
चली मैं किस ओर तो देखो,
छम छम सी पायल बोले,
और छन छन सी कंगन,
मुझको छूकर पवन भी मचले,
लजाकर , लो नयन बचाकर,
आज मैं पी के नगर चली||
…निधि…

"हूँ सरल ,किंतु सरल नहीं जान लेना मुझको, हूँ एक धारा-अविरल,किंतु रोक लेना मुझको"

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