तरस गये हैं
तरस गये हैं
पहली बार हुआ यूँ ,
कि सुनने को तेरी बातें तरस गये हैं,
मोबाइल से रिश्ते निभाते निभाते,
संवेदनाओं को ही हम ख़र्च गये हैं
अब ऊब सी मच रही है,
इसे देखने भर से,
चाहता है दिल फिर से हाथ मिलाना
और सबको गले लगाना,
अक्सर माँ , दादी की खुली बाहों को नकारा हमने,
और घुसे रहे इस संवेदनहीन यंत्र में हम,
आज उन्ही बाहों को तरस गये हम,
संवेदनाओं को ही ख़र्च गये हम…

अंजनीत निज्जर
Jalandhar
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कवयित्री हूँ या नहीं, नहीं जानती पर लिखती हूँ जो मन में आता है !!...

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