"खुबसीरत" सी बेटियाँ" :)
कितना आसान है न….
गैरों की बेटियों का वजूद तय कर जाना …
नज़रिए के तराजू को अपमान से भरकर…
उसके तन और मन को एक साथ तोल जाना
अपने मन की कालिक से
उसके सावले से रंग को काला स्याह कर जाना…
ओछी सी सोच से उसके कद को कभी छोटा कभी बड़ा
और वजन को कम ज्यादा कर जाना..
कितना आसान है न..
हौसले से भरी चाल चले तो चाल चलन का अंदाज़ा लगाना …
अगर खामोश चुप सी रहे तो “गूंगी गवांर”का ताना कस जाना…
दुपट्टे की लहराहट औऱ जीन्स की कसावट से
उसके संस्कारों का हिसाब लिख जाना
कितना आसान है न..
जाने किस पैमाने पर नापते है लोग …
बाजार की गुड़िया और आँगन की बिटिया में फ़र्क क्यूँ नही समझ पाते हैं लोग…..
क्यूँ नही समझ पाते बेटियाँ सब की एक जैसी ही होती हैं किसी की “खूबसूरत” भी
होती हैं…
किसी की सिर्फ़ “खूबसीरत”ही होती हैं……
© “इंदु रिंकी वर्मा”
This is a competition entry: "बेटियाँ" - काव्य प्रतियोगिता
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इंदु वर्मा
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मैं "इंदु वर्मा" राजस्थान की निवासी हूं,कोई बहुत बड़ी लेखिका या कवयित्री नहीं हूं लेकिन...

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