
Jan 11, 2021 · कविता
"कोरोना"
यही अंजुमन और यही शजर सा लगता है..
अब अपना आशियाना बे-घर सा लगता है..
वक्त ने डुबोया है ऐसी महामारी में हमें..
कि अब इंसान को इंसान से डर लगता है..
पहले दिल न मिले तो भी हाथ मिला लेते थे..
अब हाथ मिलाओ तो फंदे में सर लगता है..
इतना जुल्म ढाया है हर किसी ने अपनों पर..
मुझे किसी मजलूम की बद्दुआ का असर लगता है..
जो दिल पत्थर हुआ तो खुद को खुदा मान बैठे थे..
मुझको तो बस यह खुदाई कहर लगता है..
अगर कोई अब लाकर दे अमृत भी मुझे..
मुझको हर प्याले में जहर लगता है..
(#ज़ैद_बलियावी)
This is a competition entry: "कोरोना" - काव्य प्रतियोगिता
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तुम्हारी यादो की एक डायरी लिखी है मैंने...! जिसके हर पन्ने पर शायरी लिखी है...


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