Dec 15, 2020 · कविता
कोरोना का कीड़ा
कोरोना का हर तरफ ऐसा है खौफ
बाकी रोगों की नहीं हो रही बात
रिश्ते नाते सब हो रहे बेजार
कौन अपना है कौन पराया
इसकी हो रही है पहचान
कोरोना का कीड़ा घुस गया है
दिलों दिमाग में इस तरह
कि मानवता भी हो गयी शर्मशार
खुन के रिश्ते भी मुंह मोड़ बैठे
तो गैरों को क्या कहना
रोग हो जाये भले कोई और
सबको लगे कोरोना का ही है वार
कोविड नेगेटिव का मांगें प्रमाणपत्र
हम तो अपने हैं- कहने वाले
मुंह चुराते फिरे सैकड़ों वार
सच ही कहा टैगोर जी ने
एकला चलो रे
एकला चलो रे….
स्वरचित
रश्मि
कोलकाता
This is a competition entry: "कोरोना" - काव्य प्रतियोगिता
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जब से लिखना आया तबसे लिखना शुरू की...... पर किसी ने बताया नहीं की लेखन...

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