
Nov 3, 2018 · कविता
आईने में मां
आईने में माँ
आज उम्र के इस पड़ाव पर अक्सर
आईने में एक बूढ़ी स्त्री नज़र आती है
कभी मुस्कुराती, धीरज – सा बँधाती है।
चिंता दर्शाती, कभी एहसास ये दिलाती है
कि बच्चों की बेरुखी, माँ-बाप को
असमय बूढ़ा कर जाती है।
अब मैं उठती हूँ अक्सर पकड़े घुटने
करती हूँ मिन्नतें बच्चों से अपने
आ जाना घर तनिक जल्दी इस बार
फीके लगते हैं तुम बिन त्यौहार।
फिर करती हूँ उनकी व्यस्तता की फिक्र
खुश रहें अपने घर में, मनाती ये शुक्र
छुपाती हूँ उनसे हरेक अपना गम
अगर दर्द हो तो भी मुस्काती हरदम
अकेलापन जब ये मुझको सताता है
अनजाना- सा डर क्यों मुझे घेर जाता है
याद आती है मुझे, वो आईने की औरत
अरे! वो तो है मेरी माँ की सी सूरत
मेरा साथ देने वो मेरे पास आ गई है
धीरे -धीरे मेरी माँ मुझ में समा गई है।
डॉ मंजु सिंह
नई दिल्ली
This is a competition entry: "माँ" - काव्य प्रतियोगिता
Voting for this competition is over.
Votes received: 164
14 Likes · 59 Comments · 1163 Views



You may also like: