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4 Nov 2019 · 1 min read

ज़िंदा लाश की परिभाषा

साँस तो लेती है
अंदर बाहर
भोजन औ नित्य क्रियाएँ भी
समय समय पर करती है।

हालचाल भी करती है,
गर पूछे कोई “और कैसे हो?
कहती है “सब बढ़ियाँ!”
“आप कैसे हो?”

पर भीतर ही भीतर
घूँटती रहती है हर पल
सिसक सिसक तनहाई में,
ऑंखें भी रिस रिस जाती हैं।

क्या करती है?
क्यों करती है?
करते करते क्यों रूकती है
फिर से करने में लग जाती
चार समाज जो भी कह दे।

क्या अच्छा ? क्या बुरा?
जिसने जो बोला, हाँ में हाँ
अपने मन से कुछ ना कहती।

मन!
मन ही तो नहीं है इसका
ग़र होता मन, होती ज़िंदा
ज़िंदा वो कैसे कहा जाए
जीतेजी जिसका मन मर जाए!!

-?️अटल©

Language: Hindi
1 Like · 1 Comment · 672 Views
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