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12 Nov 2018 · 1 min read

ग़ज़ल

ग़ज़ल

ख़्वाब-ए-ख़्यालो में पली मोहब्बतें कैसी
बेलिबास नाच रही रफ़ीक़ो ! वहशते कैसी

न रज़ा-ए-चाँद हम पर है न मेहर-ए-रब कोई
फिर क्यों सोच रहे हो कि ये क़यामतें कैसी

साथ उसके ही ख़ुदा भी मेहरबाँ इतना
ग़म-ए-रुसवाई में ‘पूनम’अदावतें कैसी

तबस्सुम सी निग़ाहें दुश्मनों की नोचती हैं
लुट गया रहबर-ए इश्क तो अब इनायतें कैसी

शमां की चिंगारियों से जलते चिराग थे हम
जो बुझ गए तो तूफानों से शिकायतें कैसी

हर कोई बे-ख़बर ज़ुल्म को अंज़ाम देकर भी
झूठ का बोलबाला हो जहाँ तो सदाक़तें कैसी

‘पूनम’ बचा ले खुद को दौर-ए-शैताँ से यहाँ
न फिर कहना कि ये बेगैरत सियासतें कैसी

— पूनम पांचाल —

अदावतें – नफ़रत
तबस्सुम-सी – हँसती हुई
सदाक़तें – सच्चाई

1 Like · 1 Comment · 435 Views
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