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6 Oct 2017 · 1 min read

ग़ज़ल।मेरे हमदम मेरी तनहाइयाँ फिर नापने निकले ।

=================ग़ज़ल================

मेरे हमदम मेरी तनहाइयाँ फ़िर नापने निकले ।
कि मेरे इश्क़ की गहराइयाँ फ़िर नापने निकले ।

सिसकती रूह की परछाइयाँ फ़िर नापने निकले ।
बिछा दिल रूप की मदहोशियाँ फ़िर नापने निकले ।

नजऱ के ख़ंजरों के दम लगाकर आग़ तन मे वो ।
मेरे क़िरदार की दमदारियाँ फ़िर नापने निकले ।

मुहब्बत मे हक़ीक़त का भरोसा न रहा जिनको ।
लुटे जज़्बात की कमजोरियाँ फ़िर नापने निकले ।

दग़ा से ख़ून- ऐ- आँसू हुए काफ़ूर जब देखा ।
रुआँसी आँख की रुसवाईयाँ फिर नापने निकले ।

चुभो नश्तर ज़िगर को वो कुरेदा कर रहे हर पल ।
कि चेहरे पर रुकी खामोशियाँ फिर नापने निकले ।

नज़ाक़त से मुहब्बत मे बनाकर फासलें ‘रकमिश’।
ग़मो से से मंजिलों की दूरियाँ फिर नापने निकले ।

✍रकमिश सुल्तानपुरी ।

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