#ग़ज़ल-61
दो रंग मोहब्बत के होते हैं ज़माने में
कुछ लोग हँसते तो कुछ रोते हैं ज़माने में/1
रब दी लकीरें हाथों की मिटती नहीं प्यारे
क़िस्मत लिखे लेखे सब ढ़ोते हैं ज़माने में/2
चलते नदी की धारा पाते मंज़िलें-सागर
जो लोग हैं रुकते वो खोते हैं ज़माने में/3
अपने किए पर वो ही पछताते सदा हैं जी
जो बीज धोखे के हँस बोते हैं ज़माने में/4
मिलना दिलों का होता क़ुदरत की इबादत है
फिर प्यार के दुश्मन क्यों होते हैं ज़माने में/5
पहलू सुने हैं प्रीतम सिक्के के यहाँ दो ही
इतना न समझें वो जी सोते हैं ज़माने में/6
सर्वाधिकार सुरक्षित सृजन
ग़ज़लकार-आर.एस.’प्रीतम’